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कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १९९
सज्जन व्यक्तियों की अपेक्षा चोर, डाकू, लुटेरे, व्यभिचारी, अन्यायी, अत्याचारी एवं भ्रष्टाचारी व्यक्ति अधिक सम्पन्नता और सुख-सुविधा प्राप्त करते हैं और जब वे पढ़ते हैं कि इतिहास प्रसिद्ध महान् चरित्रवान् व्यक्तियों का जीवन कष्टों और यातनाओं से पूर्ण था, तब तो उन्हें ऐसा लगता है कि घोर अन्धेर है । कर्म - व्यवस्था नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। उनका तर्क है कि लोकमंगल की भावना से आजीवन प्रेम पुजारी, पवित्र जीवन-जीवी ईसामसीह को क्रूस पर लटकाया गया, यह उनकी व्यापक करुणा थी कि दुष्ट प्रकृति के लोगों को उन्होंने अनुचित मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाया और आजीवन लोगों को नैतिकता और सदाचार का उपदेश देते रहे। आजीवन सत्यनिष्ठ, सदाचार-परायण, चरित्रवान् एवं नैतिक आदर्शों के दृढ़ अनुगामी सुकरात को जबरन विष का प्याला पिलाकर अकाल में ही मौत के गाल में धकेल दिया गया। पवित्र जीवनजीवी स्वामी श्रद्धानन्द और सत्य-अहिंसा के परम उपासक महात्मा गांधी को गोली का शिकार होना पड़ा। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को चौदह वर्ष तक वन-वन की खाक छाननी पड़ी। श्री कृष्ण को अन्यायी अत्याचारी लोगों के त्रास से मुक्ति पाने के लिये मथुरा छोड़कर सौराष्ट्र तक कूच करनी पड़ी और वहीं द्वारिका नगरी बसानी पड़ी। ऐसे कर्मयोगी की भी इहलीला जराकुमार के बाण से अरण्यभूमि में पूर्ण हुई। देश-विदेश में व्यावहारिक वेदान्त का प्रचार करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी स्वामी विवेकानन्द को भयंकर रोग ने आ घेरा, जिससे असमय में ही उनका निधन हो गया। स्वामी रामतीर्थ भी अल्पायु में ही इस संसार से विदा हो गए। रामकृष्ण परमहंस भी गले के कैंसर के कारण मरण-शरण हुए। परम धार्मिक एवं आध्यात्मिक तपोमय जीवन जीने वाले भगवान् महावीर को अपने जीवनकाल में घोर कष्टों और उपसर्गों का सामना करना पड़ा। आद्य शंकराचार्य २८-३० वर्ष की अल्पायु में ही परलोकगामी हो गए । '
इन सब तथ्यों को देखकर स्थूल दृष्टि वाले अदूरदर्शी व्यक्ति कर्म एवं कर्मफल के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध होकर कहने लगते हैं-संसार जिन्हें आदर्श पुरुष मानता है, वे आजीवन पवित्र जीवन-जीवी, सन्मार्गगामी व्यक्ति क्यों दुःखी, रोगग्रस्त या असमय में ही मौत के मेहमान हुए ? पूर्वजन्मकृत कर्मों के कारण ही विपत्ति, वर्तमानजन्मकृत नहीं
भारत के सभी आस्तिक दर्शन इन सब शंकाओं का युक्तियुक्त समाधान इस प्रकार करते हैं कि वर्तमान जीवन ही किसी जीव का समग्र
१. समतायोग, पृ. ५०३
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