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१७८ · कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
प्रवाहरूप से आत्मा और कर्म का अनादि सम्बन्ध
कर्म-प्रवाह की दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि माना गया है। प्रवाहरूप या समष्टि की दृष्टि से कर्मसंतति की कोई आदि (प्रारम्भ) नहीं है। अनादिकाल से जीव कर्मों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। अतीत काल में ऐसा कोई समय नहीं आया, जब यह आत्मा कभी कर्मों से जकड़ा हुआ या पृथक नहीं था। भूतकाल में ऐसी कोई घड़ी नहीं थी कि आत्मा और कर्मपरमाणु पृथक-पृथक पड़े हों, और किसी ने. किसी समय उन्हें मिश्रित कर दिया हो। ऐसा होने पर तो कर्ममुक्त सर्वथा विशुद्ध सिद्धालयस्थित आत्मा भी अकारण ही स्वतः कर्मबद्ध हो जाएगी, अपनी अकर्म स्थिति को सुरक्षित नहीं रख पाएगी। अतः आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को प्रवाहरूप से अनादि ही मानना चाहिए।' भव्य और अभव्य जीव का लक्षण ।
कर्ममुक्ति की साधना की दृष्टि से दो प्रकार के जीव माने जाते हैंभव्य और अभव्य। जिस जीव में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है, ज्ञानदर्शन-चारित्ररूपी सद्धर्म की आराधना करके मुक्त होने की क्षमता है वह जीव भव्य कहलाता है और जिस जीव में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता, सम्यग्दर्शन की ज्योति से अपनी अन्तरात्मा को आलोकित करने की सामर्थ्य नहीं है वह अभव्य कहलाता है। अभव्य जीव का कर्म के साथ अनादि-अनन्त सम्बन्ध -
- जैनदृष्टि से अभव्यजीव अपने आत्म-प्रदेशों से कर्म-परमाणुओं को सर्वथा पृथक् कदापि नहीं कर पाते। उनके आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मपरमाणुओं का सम्बन्ध सदैव सतत किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। अतएव अभव्यजीवों (आत्माओं) का कर्म के साथ सम्बन्ध अनादिअनन्त माना गया है। वन्ध्या नारी लाख प्रयत्न करले, फिर भी वह माँ बनने का सौभाग्य प्रप्त नहीं कर सकती, वैसे ही अभव्य जीव भी अपनी स्वभावसिद्ध प्रकृति के कारण सम्यग्दर्शन का स्पर्श कदापि नहीं कर पाता। वह मिथ्यात्व के गहन अन्धकार में डूबा हुआ ही समग्र जीवन यापन करता है। अतः ऐसे अभव्य जीव (आत्मा) का कर्म-सम्बन्ध सदैव स्थायी होने से अनादि-अनन्त कहलाता है।'
१. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३७ २. ज्ञान का अमृत, पृ. ३७ ३. वही, पृ. ३७
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