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कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १९१
और कुछ ही दिनों में उसका प्राणान्त हो गया। यद्यपि वह साधुधर्म के कठोर क्रियाकाण्ड और कष्टकारक चर्या का पालन करता था, परन्तु मिथ्या प्ररूपणा और कर्म एवं धर्म के अस्तित्व के प्रति संदेहशीलता तथा दुष्कृत्य प्रवृत्तियों के कारण उसे दीर्घकाल तक संसार-परिभ्रमण का भागी होना पड़ा। यह था, गोशालक की कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धा के दुष्परिणाम का ज्वलन्त निदर्शन !' कर्म के अस्तित्व के प्रति श्रद्धाहीनों के द्वारा की गई कठोर साधना निष्फल
निष्कर्ष यह है कि कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के प्रति श्रद्धाहीन व्यक्ति दुष्कर्मों के बन्धनों से जकड़ जाते हैं और दिग्भ्रान्त तथा किंकर्तव्यविमूढ़ होकर दुष्कर्मों की भूलभुलैया में उलझते तथा भटकावों से खिन्न और उद्विग्न बने दिखाई देते हैं। ऐसे लोगों की कठोर चर्या और साधना की कमाई कुसंस्कारों, मिथ्या-मान्यताओं और दुष्कर्मों के गर्त में गिरकर नष्ट हो जाती है। धर्म-कर्म के प्रति श्रद्धाहीनता के कारण जो व्यक्ति निकृष्ट चिन्तन और घृणित कर्तृत्व बनाए रखते हैं अथवा दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति को अपनाते रहते हैं उन्हें किसी भी पूजापाठ कठोर क्रियाकाण्ड या साधना में सफलता प्राप्त नहीं होती। कर्म के अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता
आज जब कि सारा संसार कर्म-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है, तब इस प्रकार फल के प्रति संदेहशील अथवा सद्यः फलाकांक्षी लोग भ्रम में पड़ें रहते हैं और कर्म के अस्तित्व से ही इन्कार करने लगते हैं। परन्तु किसी वस्तु के अस्तित्व से इन्कार करने मात्र से उसके अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता। सूर्य का गमगाता प्रकाश व आतप सारे संसार के प्राणियों के द्वारा दृश्यमान या अनुभूयमान (स्पृश्यमान) होने पर भी अगर उल्लू कहे कि सूर्य है ही नहीं, या सूर्य नामक किसी भी पदार्थ का अस्तित्व संसार में नहीं है, तो कौन उसकी बात मानेगा ? किसी वस्तु की अनुभूति या प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति देर से होने पर उस वस्तु के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। कर्म तथा उसके फल की अनुभूति देर-सबेर से होने पर उसके अस्तित्व या वस्तुत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता।
१. (क) देखिए-भगवती सूत्र शतक १५ में गोशालक प्रकरण
(ख) भगवान महावीर : एक अनुशीलन (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) २. अखण्ड ज्योति जून १९७७ से सार-संक्षेप
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