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१९४ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ )
"जो जो क्रिया होती है, वह वह अवश्य ही फलवती होती है" यह न्याय प्रसिद्ध है। कर्म भी वन्ध्य, फलहीन या नपुंसक नहीं होते, वे भी तथारूप प्रतिरूप प्रतिक्रिया - सन्तति अवश्य उत्पन्न करते हैं। '
दूरदर्शी व्यक्ति कर्मफल न मिलने पर भी दुष्कृत्यों में प्रवृत्त नहीं होता
हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि कोई व्यक्ति कुपथ्य सेवन करता है, उसी दिन उसका शरीर जर्जर एवं अस्वस्थ नहीं हो जाता। खान-पान में संयम न करने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता। किसी व्यक्ति ने व्यभिचार या अनाचार किया, उसे उसी दिन ही जेल की सजा मिल जाएं, ऐसा कहाँ होता है ? फिर भी विचारशील एवं कर्म के प्रति श्रद्धावान् व्यक्ति यह सोचकर उन अनिष्ट कृत्यों में प्रवृत्त नहीं होता कि एक-दो दिन नहीं, परन्तु आखिर तो एक न एक दिन उस दुष्कृत्य या अनिष्ट प्रवृत्ति का परिणाम भुगतान ही पडेगा । 'महाभारत' में कहा गया है- "हे सज्जन ! जो व्यक्ति शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है, उसे उस कर्म का फल अवश्य मिलता है।"
विलम्ब में ही दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता की परीक्षा
अतः सत्कर्मों और दुष्कर्मों के सुनिश्चित परिणाम को ध्यान में रखते हुए दूरदर्शिता अपनानी चाहिए। जैसे अध्ययन, व्यायाम और व्यवसाय का फल तत्काल नहीं मिलता, इन सब क्रियाओं की प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है, इसी प्रकार सत्कर्म और दुष्कर्म के परिणाम में कुछ विलम्ब हो जाए तो भी निराश और भ्रमग्रस्त होकर कर्म एवं उसके फल के. सम्बन्ध में अविश्वास नहीं प्रकट करना चाहिए ।
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इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता की परीक्षा है। -यदि कर्म का फल तत्काल मिला करता, तब किसी के अच्छे-बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न रहती । चोरी करने वालों के हाथ टूटे हो जाते, पर - स्त्री पर कुदृष्टि करने वालों की आँखें फूट जातीं, और झूठ बोलने वाले का मुख सूज जाया करता या हत्या करने वाले का शीघ्र ही प्राणान्त हो जाता अथवा ठगी करने वाले के दिमाग की नस फट जाती । परन्तु ऐसा क्वचित् ही होता है, कर्म और उसके फल के बीच में समय का व्यवधान रहता है। जो मनुष्य इस धीरता, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता की परीक्षा में फेल हो जाते हैं। वे कर्म के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध होकर सत्कर्मों के
१. ( क ) अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९१७ से सार संक्षेप
(ख) 'या या क्रिया, सा सा फलवती'
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