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१७६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
दोनों के अनादि सम्बन्ध का अन्त कैसे ?
आत्मा (जीव) और कर्म का अनादि सम्बन्ध मानने पर उस सम्बन्ध का अन्त कैसे होगा ? वह सम्बन्ध तोड़ा कैसे जाएगा ? क्योंकि सामान्य नियम यह है कि जो अनादि होता है, वह अनन्त भी होता है, उसका कभी अन्त नहीं हो सकता। जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने इसका समाधान करते हुए कहा कि कर्म और आत्मा के अनादि सम्बन्ध के बारे में यह नियम सार्वकालिक नहीं है। अनादि के साथ अनन्तता की कोई व्याप्ति नहीं है। अनादि होते हुए भी सान्तता पाई जाती है। बीज - वृक्ष - सन्तति को परम्परा की अपेक्षा अनादि कहा जाता है, किन्तु बीज को जला देने पर फिर वृक्ष की परम्परा का अन्त आ जाता है । इसी प्रकार तत्त्वार्थसार में कहा गया है. “ - आत्मा (जीव) से कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर फिर भवांकुर की (संसार में उत्पन्न होने की) उत्पत्ति नहीं होती। बीज- वृक्ष परम्परा जैसे टूट जाती है, वैसे ही कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध टूट सकता है। इसी तथ्य का सूत्रकृतांगसूत्र में इंगित किया गया है - "पहले बंधन को जानो - समझो, फिर उसको तोड़ डालो।""
जो धीर-वीर मुनिपुंगव होते हैं, वे अपने-तप-संयम में सुदृढ़ रहते हैं। उन्हें अनायास ही कर्म से छुटकारा मिलता रहता है। अतः यद्यपि जैसे स्वर्ण और मिट्टी का दूध और घी का बीज और वृक्ष का अनादि सम्बन्ध है, तथापि प्रयत्न-विशेष से वे पृथक-पृथक होते देखे जाते हैं; वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त हो जाता है।
पंचाध्यायी में आत्मा और कर्म दोनों के सम्बन्ध को स्वर्ण और मिट्टी के सम्बन्ध के समान अनादि बताया है। योगीश्वर आनन्दघनजी ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है कि कर्मप्रकृति और पुरुष (आत्मा) की जोड़ी स्वर्ण और उपल के समान अनादि है । " सोना खान से निकलता है, तब अशुद्ध होता है, उसमें मिट्टी और पत्थर मिले रहते हैं, वे दोनों उस समय
१. (क) दग्धे बीजे तथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवांकुरः । - तत्त्वार्थसार
(ख) कर्मग्रन्थ भा. १ (विवेचन) की प्रस्तावना (मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म.) पृ ४० से
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(ग) बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया ।' - सूत्रकृतांग १/१/१/१
२. (क) 'द्वयोरप्यनादिसम्बन्धः कनकोपलसन्निभः ।' - पंचाध्यायी २ / ३६
(ख) 'कनकोपलवत् पयडी- पुरुष तणी रे, जोड़ी अनादि - स्वभाव ।"
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आनन्दघन चौबीसी (अध्यात्मदर्शन) से
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