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कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १८३
कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित
आत्मा और कर्म के प्रति आस्था : तब और अब
प्राचीन भारत के उज्ज्वल इतिहास की पृष्ठभूमि आत्मा, कर्म, लोक तथा परलोक के प्रति आस्था के तत्त्वज्ञान द्वारा समृद्ध हुई थी। उन दिनों अधिकांश लोग आत्मा और धर्म-कर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान् थे। उन्हें कोई भय या प्रलोभन देकर विचलित करने आता तो भी वे किसी भी मूल्य पर अपनी आत्मा के शाश्वत अस्तित्व के, कर्मों की जन्म-जन्मान्तर चलने वाली अविच्छिन्नता के, स्व-पर-कल्याणकर धर्म के आचरण एवं फल के प्रति अपने सुदृढ़ विश्वास को कभी नहीं छोड़ते थे, और न ही कभी उसे जर्जर एवं शिथिल होने देते थे। ऐसे पवित्र वातावरण में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एवं आध्यात्मिक प्रगति की अनेकानेक उपलब्धियाँ दृष्टिगोचर होती थीं। उनसे अगणित लोगों को प्रेरणा भी मिलती थी।
___ आज आत्मा और कर्म के अस्तित्व पर आस्था का सुनहरी मुलम्मा तो चढ़ा हुआ है, परन्तु तात्त्विक दृष्टि से, तथा आध्यात्मिक चिन्तन की दृष्टि से वह खोखला ही नहीं, विकृत भी होता जा रहा है। फलतः उसका लाभ मिलने की अपेक्षा उसकी विकृति की सड़ान की दुर्गन्ध से हानि ही अधिक उठानी पड़ रही है। आत्मा और कर्म के अस्तित्व के सम्बन्ध में आज अनेकों प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों और लेखों के बावजूद भी, अर्थात् आत्मा और कर्म के अस्तित्व और तत्व के ज्ञान-विज्ञान में वृद्धि होने पर भी संसार के अधिकांश बुद्धिजीवियों की आस्था इन पर से डगमगाने लगी है। वर्तमान में आस्था-संकट के दुष्परिणाम
अब प्रायः यह समझा जाने लगा है कि हम चाहे जैसा उलटा-सीधा व्यवहार या कर्म करें, आत्मा के लिए वह हितकर हो या अहितकर, इसका विचार, आलोचना, प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त करके आत्मशुद्धि की दिशा में बढ़ने की अपेक्षा सस्ते नुस्खे अपनाए जा रहे हैं। उन्हीं सस्ते नुस्खों के आधार पर मनुष्य स्वयं को परम आस्तिक, सम्यक्त्वी, विश्वासी
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