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कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १८७
इस जन्म में दूसरे किसी को कोई त्रास नहीं पहुँचाई है, फिर क्यों कोई अकस्मात् ही मुझे त्रास देगा या मुझे अकारण ही हानि पहुँचाएगा ? ऐसे समय में अर्थलिप्सु मांत्रिक या तांत्रिक लोग उसके दिमाग में यह बात ठसा देते हैं कि किसी ने उसे डरा कर उससे कुछ धन या अमुक वस्तु प्राप्त करने के इरादे से ऐसा किया होगा, अथवा किसी को प्रलोभन देकर उससे ऐसा जादू-टोना या टोटका कराया होगा। इस प्रकार के अर्थलोलुप व्यक्ति उस संकटग्रस्त को वाग्जाल में फँसाकर अथवा उलटे-सीधे कारण बताकर उसे आकस्मिक संकट के वास्तविक कारण की खोज से हटा देते हैं और अन्धश्रद्धा के मार्ग पर चलाकर उसे अधिकाधिक संकट के बीहड़ वन में भटका देते हैं। संकटों के वास्तविक निदान न होने से ऐसी विसंगत अटकलबाजियों से व्यक्तियों का मनःसमाधान नहीं हो पाता । ' फलतः ऐसे भोले-भाले लोग कर्म के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध ही बने रहते हैं। नास्तिकों की कर्म के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धा का कारण और निवारण
नास्तिक वर्ग के लोग इन और ऐसे किसी अन्धविश्वास, गुरुडम, झाड़फूँक या मंत्र-तंत्रों के चक्कर में तो प्रायः नहीं फंसते, क्योंकि अधिकांश नास्तिक बुद्धिजीवी, तार्किक या प्रत्यक्षवादी होते हैं। वे अपने किसी भी आकस्मिक संकट, विघ्न, विपत्ति, दुःख, रोग या चिन्ता को सहसा पूर्वकृत कर्म का फल मानने से कतराते हैं। वे 'कर्म' के अस्तित्व को झटपट मानना ही नहीं चाहते, प्रत्युत ऐसे आकस्मिक संकटों के विषय में ऊटपटांग कल्पना करके मन को समझा लेते हैं, परन्तु जब उनके किसी पुत्र, पुत्री, पत्नी या माता-पिता आदि किसी स्वजन को कोई भयंकर रोग हो जाता है, तो वे पहले तो यहीं कहकर समाधान कर लेते हैं - खान-पान की अमुक गलती के कारण इसके यह दुःसाध्य रोग हुआ। परन्तु जब खान-पान की कोई भी तात्कालिक गलती उक्त रोगी की नहीं मालूम होती, और वे उस आकस्मिक रोग का कारण नहीं खोज पाते, तब साधारण सर्दी-गर्मी आदि के लगने की किसी कारण की कल्पना करके मनःसमाधान कर लेते हैं। उसकी चिकित्सा के लिए नित नये चिकित्सकों के दरवाजे खटखटाते रहते है, उनके द्वारा बताई हुई नई-नई दवाइयाँ तथा पेटेंट औषधियाँ रोगी को खिलाते रहते हैं। इतने पर भी जब बीमारी नहीं मिटती; उलटे, वह बढ़ती ही जाती है, तब वे आशा-निराशा के झूले में झूलते रहते हैं । औषध, उपचार, चिकित्सा आदि सब व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। बीमारी किसी भी
१. (क) समतायोग (रतनमुनि) से भाव- ग्रहण, पृ. ४९६
(ख) अखण्ड ज्योति जून १९७७ के अंक से सार संक्षेप
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