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१८२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
दृष्टि को मुख्यता देकर जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादिकालीन कहा ं गया है । "
आत्मा के साथ कर्म के अनादि और सादि सम्बन्ध का स्पष्टीकरण
प्रवाह - सन्तति की अपेक्षा से आत्मा के साथ कर्म के अनादि सम्बन्ध at और व्यक्ति की अपेक्षा से सादि सम्बन्ध को स्पष्टतः समझाने के लिए पंचास्तिकाय में गया गया है
"जो जीव संसार में स्थित है, अर्थात् जन्म-मरणादिरूप संसारचक्र में पड़ा हुआ है, उसे मन-वचन-काया में परिस्पन्दन से राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। परिणामों से नये कर्म बंधते हैं । कर्मों के कारण नाना गतियों में गमन करना (जन्म लेना) पड़ता है। उस गति को प्राप्त कर लेने पर वहाँ जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर प्राप्त होने से उसमें इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों से वह विषयों का ग्रहण करता है। विषयों
ग्रहण से फिर रागद्वेषदिरूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसार चक्र में पड़े हुए जीव के (रागादि) भावों से कर्म और कर्म से भाव उत्पन्न होते रहते हैं। यह कर्मप्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है और भव्यजीव की अपेक्षा से अनादि - सान्त है । " २
सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा के साथ कर्म का संयोग प्रथम (मिथ्यात्व गुणस्थान) से प्रारम्भ होता है और तेरहवें (सयोगी केवली) गुणस्थान तक यह चलता है। चौदहवें (अयोगी केवली) गुणस्थान में योगों (मन-वचन काया की प्रवृत्ति) का सर्वथा निरोध हो जाने पर आत्मा कर्म से सर्वथा वियुक्त (मुक्त) हो जाता है। आत्मा का फिर कर्म के साथ पुनः संयोग नहीं होता।
इस प्रकार कर्म का अस्तित्व अनादि सिद्ध होने के साथ-साथ ‘आत्मा के साथ कर्म कब से लगते हैं और कब तक रहते हैं ?', इस सन्दर्भ में - 'आत्मा पहले या कर्म ?', आत्मा के साथ कर्म के त्रिविध सम्बन्ध कौन से और कैसे हैं ? इन सब शंकाओं का युक्तिसंगत यथोचित समाधान दिया गया है।
१. ज्ञान का अमृत पृ. ४०
२. (क) जो खुल संसारत्यो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदि सु गदि ।। १२८ । ।
गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते ।
हिंदु विसयहणं, तत्तो रागो व दोसा वा ॥ १२९॥
जायदि जीवस्सेव भावो, संसारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो, सणिधणो वा ॥ १३० ॥
(ख) कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना, पृ. ३९-४०
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- पंचास्तिकाय १२८ से १३०
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