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कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ? १६७
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कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ?
संसार में जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, उन्होंने एक या दूसरे प्रकार से कर्म का अस्तित्व स्वीकार किया है। पिछले प्रकरणों में हम विभिन्न युक्तियों, सूक्तियों, अनुभूतियों, पहलुओं और प्रमाणों से कर्म का अस्तित्व सिद्ध कर चुके हैं।
कर्म और आत्मा दोनों के अस्तित्व और सम्बन्ध को समझना अनिवार्य
आस्तिक दार्शनिकों ने अध्यात्म के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण शोध की हैं। एक-आत्मा की, और दूसरी कर्म की । आत्मा और कर्म इन दो महत्वपूर्ण उपलब्धियों ने महान सत्य का उद्घाटन किया है, अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत बड़ी क्रान्ति की है, इन दो तत्त्वों की खोज ने। ये दो तत्त्व ही अध्यात्म . के मौलिक आधार स्तम्भ हैं। केवल आत्मा के अस्तित्व को मान लेने मात्र से अध्यात्म का प्रासाद स्थिर नहीं रह सकता । कर्म को उसके साथ द्वितीय आधारस्तम्भ माने बिना अध्यात्म प्रासाद डगमगा जाएगा। क्योंकि अध्यात्म की समग्र परिकल्पना, पूर्णता, लक्ष्यप्राप्ति की योजना, और तत्त्व व्यवस्था है - आत्मा (जीव ) को कर्म से सर्वथा मुक्त करना । यदि आत्मा का ही अस्तित्व न हो तो किसको मुक्त किया जाएगा ? और यदि कर्म का अस्तित्व ही न हो तो किससे मुक्त किया जाएगा ? अतः इन दोनों के अस्तित्व को माने बिना अध्यात्म - पूर्णता की कोई युक्तिसंगत परिकल्पना ही नहीं हो सकती।
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बद्ध आत्मा और मुक्त आत्मा, इन दोनों प्रकार की आत्मा के बीच कर्म का एक सूत्र है, जो मुक्त आत्मा तक पहुंचने तक में अनेक उपाधियों से युक्त बना देता है। बद्ध आत्मा कर्म- संयुक्त है, जबकि मुक्त आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त है। दोनों में अन्तर डालने वाला कर्म है। जब तक आत्मा बद्ध है, संसारी है, तब तक कर्मों की परिक्रमा लगती रहती है। अतः जैसे . आत्मा के अस्तित्व को तथा उससे सम्बद्ध तत्त्वों को समझना आवश्यक है, वैसे ही उन बाधक - साधक (आम्रव - संवरादि) तत्त्वों के कारणभूत 'कर्म' के
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