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कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
और किसी को प्रयत्न करने पर भी फल नहीं मिलता, ये और ऐसी ही अन्य बातें दृष्ट कारण से घटित होनी सम्भव नहीं है, इसलिए इन सब बातों का कोई न कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए । वह अदृष्ट कारण कर्म ही है।"१
बौद्धदर्शन की दृष्टि में विसदृशता का कारण : कर्म
सारांश यह है कि संसार में जिधर दृष्टि डालते हैं, उधर ही विषमता, विरूपता और विचित्रता दिखाई देती है । तथागत बुद्ध के प्रसिद्ध शिष्य स्थविर 'नागसेन' और राजा 'मिलिन्द' का प्रश्नोत्तर भी इसी तथ्य का समर्थन करता है।
मिलिन्द नृप ने पूछा
“भंते! क्या कारण है, मनुष्य एक सरीखे नहीं होते ? कोई अल्पायु और कोई दीर्घायु है, कोई बहुत रोगी है, तो कोई नीरोग है, कोई कुरूप है, तो कोई सुरूप-अतिसुन्दर है, कोई प्रभावशाली हैं तो कोई प्रभावहीन है, कोई निर्धन है तो कोई धनवान् है, कोई नीचकुल में जन्मा है तो कोई उच्चकुल में, तथा कोई मूर्ख और कोई चतुर है ? ऐसा अन्तर क्यों है ?
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स्थविर ने प्रतिप्रश्न किया- "महाराज ! क्या कारण है कि सभी वनस्पतियाँ एक सी नहीं होतीं ? कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तिक्त, कोई कड़वी, कोई कसैली और कोई मीठी क्यों होती है ?" मिलिन्द - "भंते मैं समझता हूँ कि बीजों के भिन्न-भिन्न (स्वभाववाले) होने से ही वनस्पतियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं । " स्थविर - "राजन् ! इसी प्रकार सभी मनुष्यों के अपने-अपने कर्म-बीज भिन्न-भिन्न (स्वभाव वाले) होने से वे सभी एक से नहीं हैं । "
इससे फलित होता है कि जिस प्रकार खट्टी, मीठी, नमकीन आदि वनस्पतियों की विभिन्नता के कारण वे बीज हैं, जो भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले होते हैं, इसी प्रकार प्राणि जगत् की स्थिति - विभिन्नताओं, विषमताओं और विसदृशताओं का भी एक बीज है, जो अलग-अलग स्वभाव वाला है । उस
१ जगतो यच्च वैचित्र्यं सुख - दुःखादिभेदतः ।
कृषि-सेवादि-साम्येऽपि, विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मान्निधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । क्वचित्फलमयत्नेऽपि, यत्नेऽप्यफलता क्वचित् । तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणात् व्यभिचारिणः ।
तेनाऽदृष्टमुपेतकर्मस्य किंचन कारणम् ॥ - न्यायमंजरी (उत्तर भाग) पृ. ४२
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