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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण: जगत्वैचित्र्य १३३
उपवास करने का मन होता है, एक घंटे बाद रसोईघर में खाद्य पदार्थ की भीनी-भीनी सुगन्ध आई, किसी ने थोड़ी-सी मनुहार की, बस, भोजन करने का मन हो गया । इस प्रकार एक व्यक्ति का मन एक घंटे में नहीं, अपितु एक-एक क्षण में बदल जाता है । बुद्धि का निर्णय भी बदल जाता है । चित्त का रवैया भी बहुत शीघ्र पलट जाता है । एक व्यक्ति अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य और अपरिग्रह वृत्ति को ठीक समझता है और यत्किंचित्रूपेण या पूर्णरूपेण उस पर चलना चाहता है अथवा परीषहों और उपसर्गों पर विजय पाना चाहता है, आत्मशुद्धि के लिए बाह्य-आभ्यन्तर तप करना चाहता है, क्षमा आदि दशविध धर्मों का भी पालन करना चाहता है, किन्तु वह न तो व्रतों - महाव्रतों या नियमों का पालन या सम्यग्दर्शनादि धर्म का आचरण कर पाता है, न ही परीषहों और उपसर्गों को सह पाता है, वह सुखशील बनकर सुख-सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करता है, बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण भी नहीं कर पाता, न ही अपनी शक्ति क्षमादि धर्मों के आचरण में लगा पाता है । जबकि दूसरा व्यक्ति व्रतनियमादि का पालन, परीषहों-उपसर्गों पर विजय प्राप्त कर पाता है, उसका जीवन तपश्चरण से सधा हुआ - साधनामय होता है । अपनी समस्त शक्तियों को वह आध्यात्मिक जीवन में- आत्मस्वरूप में रमा देता है । इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों के अन्तर का कारण कर्म ही है । एक व्यक्ति के दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म का तथा वीर्यान्तराय कर्म का उदय है, जबकि दूसरे के इन कर्मों का क्षयोपशम है । इसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में अनेक प्रकार की चारित्रिक पर्यायों का होना कर्म के ही अधीन है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार आत्म-गुणघातक (घाती) कर्म मनुष्यों के आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन में विषमता, विसदृशता, विरूपता और विभिन्नता पैदा करते हैं । ' न्यायमंजरीकार की दृष्टि में जगत् की विचित्रता का कारण : कर्म
न्यायमंजरीकार भी जगत् के प्राणियों की विचित्रता का कारण ( अदृष्ट) कर्म को ही बताते हुए कहते हैं- "जगत् में जो भी विचित्रता प्राणियों के सुखी - दुःखी आदि भेद को लेकर दिखाई देती है, अथवा कृषि तथा नौकरी (सेवा) आदि समानरूप से करने पर भी किसी को विशेष लाभ होता है और इसके विपरीत किसी को नुकसान उठाना पड़ता है। किसी को अकस्मात् ही सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर बैठे-बैठे ही बिजली गिर जाती है; किसी को प्रयत्न किये बिना ही फल की प्राप्ति हो जाती है
१ देखिये - मोहनीय कर्म का स्वरूप बन्धकारण और स्थिति को ।
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