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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
आदि के आधार पर अपने सम्प्रदायादि की पूजा-प्रतिष्ठा में वृद्धि की बुद्धि, दूसरे सम्प्रदायादि के प्रति द्रोह, घृणा, अश्रद्धा, बदनामी, आदि दुर्भावना फैलाना आदि के कारण बंधने वाले अशुभ (पाप) कर्मों की ही मात्रा अधिक होती है । इससे साम्प्रदायिक जीवन से जो शान्ति, समाधि, मनःस्थिरता, अहिंसादि की निष्काम साधना, बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण द्वारा आत्मशुद्धि आदि की उपलब्धि होनी चाहिए, उसकी अपेक्षा अशान्ति, असमाधि हिंसादि, बाह्य निष्प्राण कर्मकाण्डों का घटाटोप, आडम्बर, प्रदर्शन, सुखसुविधा, सुखशीलता, सकाम साधना आदि ही दृष्टिगोचर होते हैं, जे. कर्ममुक्ति के नहीं, कर्मवृद्धि के कारण होते हैं । साम्प्रदायिक जीवन की इन विभिन्न विकृतियों-विरूपताओं का कारण भी कर्मकृत मानना चाहिए।
(६) इसके अतिरिक्त मनुष्यों के आर्थिक जीवन में नाना प्रकार के विभिन्नताएँ प्रतीत होती हैं। कोई अत्यन्त दरिद्र है, और धनाभाव के कारण दुःखी एवं अशान्त है, तो कोई धनसम्पन्न है, उसके पास सुख-साधनों की प्रचुरता है । कोई व्यक्ति अनायास ही किसी जरिये से प्रभूत धन प्राप्त कर लेता है, और कोई व्यापार-धंधे में अपार परिश्रम करने पर भी घाटे ही घाटे में रहता है । किसी व्यक्ति को जन्म लेते ही पिता की सारी सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता है, तो किसी को धन-सम्पन्न पिता के होने पर भी पिता की सम्पत्ति में से जरा भी हिस्सा नहीं मिलता । किसी को धन मिलने पर भी वह उसे ऐश-आराम, मौज-शौक, व्यभिचार, कुमित्रों की संगति में या निरर्थक कार्यों में उड़ा देता है अथवा बीमारी, अंगविकलता आदि के कारण धन या साधनों का उपभोग नहीं कर पाता; तो कोई धन प्राप्त होने पर धर्म-प्रचार, अहिंसा-प्रचार, धर्म-शिक्षणसंस्कार, तथा अन्यान्य सत्कार्यों में, पात्रों और सुपात्रों को दान देने में, अभावग्रस्तों को सहयोग देने में, अभयदान, औषधदान आदि में उस धन का सदुपयोग करता है । एक की भावना अल्पपरिग्रह से सादगी और आडम्बररहित जीवन बिताने की है, दूसरे की भावना प्रचुर धन से ठाठ-बाट, आडम्बर, तड़क-भड़क, जुए तथा फैशन एवं विलास में अफलातून खर्च करके समाज में अपनी धाक जमाने की है । आर्थिक जीवन में ये और इस प्रकार की विषमताएँ व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों को स्पष्ट द्योतित कर रही हैं।
(७) इसी प्रकार मनुष्यों के आध्यात्मिक और नैतिक जीवन को लीजिए, इसमें भी असंख्य विभिन्नताएँ हैं । एक-एक मनुष्य की मानसिक बौद्धिक एवं चैतसिक अगणित पर्यायें होती हैं । इसीलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है-मनुष्य का मन अनेक विकल्पों वाला है ।' एक घंटा पहले १ "अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे ।" -आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. ३, उ. २
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