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१६२. कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
भ. महावीर ने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि अधिकतर लोग जब दृष्टफल के लिए कृषि, वाणिज्य या पशुवध, आदि शुभ - अशुभ क्रियाएँ करते हैं, तब यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि कृषि आदि क्रियाओ का दृष्ट के अतिरिक्त अदृष्ट (शुभाशुभ कर्मरूप) फल भी होना चाहिए ।"
वे लोग अदृष्ट अधर्म ( अशुभकर्मरूप फल ) के लिए चाहे अशुभ क्रियाएँ चलाकर न करते हों, फिर भी यह मानना अनिवार्य है कि कार्य का आधार उसकी सामग्री पर है। जिस कार्य की सामग्री होती है, वह कार्य अवश्य होता है। किसान बीज बोते समय यदि अज्ञानतावश गेहूँ के स्थान पर कोदों धान्य के बीज बो देगा, तो उसे हवा, पानी, सूर्य का ताप आदि अनुकूल सामग्री मिलने पर किसान की इच्छा - अनिच्छा की उपेक्षा करके
धान्य उत्पन्न हो ही जाएगा। इसी प्रकार हिंसादि कार्य करने वाले यां मांसाहारी व्यक्ति चाहें या न चाहें; अशुभ कर्म (अधर्म) रूप अदृष्टकर्म (फल के रूप में) उत्पन्न होता ही है। इसी प्रकार दानादि शुभ क्रियाएँ करने वाले विवेकी पुरुष भी चाहें या न चाहें उन्हें शुभकर्म (धर्म) रूपी अदृष्ट फल: मिलता है।
"यदि शुभ या अशुभ क्रियाओं से शुभाशुभ कर्मरूप अदृष्ट फल नहीं माना जाएगा तो शंकाकार के मतानुसार पापजनक अशुभ क्रियाएँ करने वाले सभी पापियों द्वारा नये कर्मों का ग्रहण न करने से मृत्यु के बाद अनायास ही कर्म के अभाव में वे मुक्त हो जाने चाहिए। इसके विपरीत जो लोग अदृष्ट शुभ कर्म के विभिन्न दानादि क्रियाएँ करेंगे, वे इस क्लेशबहुल-दुःख-प्रचुर संसार में ही रहेंगे। यह भी प्रत्यक्ष अनुभव है कि संसार में अनन्त जीव हैं, उनमें अशुभ क्रियाएँ करने वाले अधर्मात्मा ही अधिक हैं । अतः मानना होगा कि समस्त क्रियाओं के दृष्टफल के अतिक्ति अदृष्टकर्म रूप फल भी होता है।
यद्यपि अनिष्टरूप अदृष्ट (कर्म) फल की प्राप्ति के लिए कोई भी जीव इच्छापूर्वक क्रिया नहीं करता, फिर भी इस जगत् में अनिष्टफलभोक्ता जीव अत्यधिक दृष्टिगोचर होते हैं। अतः हमें मानना पड़ेगा कि क्रिया शुभ हो या अशुभ उसका अदृष्ट रूप में शुभाशुभ कर्म फल अवश्य होता है। *
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विशेषावश्यक भाष्य ( गणधरवाद) गा. १६२० पृ. ३४
२ वही, गा. १६२० पृ. ३५
३ वही, गा. १६२१ पृ. ३५
४ वही, गा. १६२२-२३ पृ. ३६
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