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कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध १६१
रूप में प्राणी का नया जन्म कार्मण-शरीरपूर्वक ही होता है, जो कर्मरूप ही है। वही तत्काल-उत्पन्न बालशरीर का कारण होता है।'
(४) दानादि क्रियाओं का कुछ न कुछ फल अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये कृषि क्रिया की तरह सचेतन व्यक्ति द्वारा की हुई क्रियाएँ हैं। जिस प्रकार सचेतन कृषक की कृषिक्रिया निष्फल नहीं होती उसे धान्यादि रूप फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार सचेतन व्यक्ति की दान आदि क्रियाएँ भी निष्फल नहीं होनी चाहिए। उसे कुछ न कुछ फल मिलना ही चाहिए। जो फल प्राप्त होता है, वह (शुभ-अशुभ-पुण्य-पाप) कर्म है। इस प्रकार कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। दान आदि की क्रियाओं के फल में जो तारतम्य दिखाई देता है, उसमें व्यक्ति द्वारा क्रिया करने में साधनों की विकलता-सकलता या न्यूनाधिकता अथवा क्रिया की अज्ञानता-सज्ञानता आदि उसके कारण होते हैं। अथवा तारतम्य का कारण यह भी हो सकता है कि जैसे-दानादि शुभ क्रियाएँ हैं, वैसे ही चोरी आदि अशुभक्रियाएँ भी हैं, इस अपेक्षा से शुभक्रियाओं का फल शुभकर्म (पुण्य) और अशुभक्रियाओं का फल अशुभकर्म (पाप) प्राप्त होता है। वैदिक (बृहदारण्यक) उपनिषद् में भी इस आशय का वाक्य मिलता है कि "पुण्यकर्म (शुभकम) से पुण्य होता है और पापकर्म (अशुभकम) से पाप होता है"।२ . ... अतः कर्म को प्रमाणसिद्ध ही मानना चाहिए।
___ "यदि यह कहा जाए कि कृषि आदि का धान्यादि फल तो दृष्ट है, उसी प्रकार चेतन की दानादि समस्त क्रियाओं का फल दृष्ट ही मान लेना
चाहिए, अदृष्ट कर्म को फल मानने की क्या आवश्यकता है ? जिस प्रकार 'संसार में जो लोग पशुवध आदि क्रियाएँ करते हैं, वे अशुभकर्म (अधम) रूप अदृष्ट फल के लिए नहीं, किन्तु मास-भक्षण आदि दृष्ट फल के प्रयोजन से ही करते हैं; इसी प्रकार सभी क्रियाओं का कोई न कोई दृष्ट फल ही मानना चाहिए अतः अदृष्ट फल मानना अनावश्यक है। आशय यह है कि जैसे-लोक-व्यवहार में लोग कृषि, व्यवसाय आदि क्रियाएँ धान्यादि दृष्ट फल-प्राप्ति के लिए करते हैं, वैसे ही अधिकांश लोग दानादि क्रियाएँ भी यश-कीर्ति आदि दृष्ट फल के लिए करते देखे जाते हैं। अदृष्ट कर्म (शुभकम) रूप फल की प्राप्ति के लिए दानादि क्रियाएँ करने वाले विरले ही होते हैं।
१ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १६१४ पृ. ३२ २ वही, गा. १६१५-१६१६ पृ. ३२-३३ ३ 'पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः पापेन कर्मणा' । -बृहदारण्यक ४/४/५
४ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १६१५ पृ. ३३ Jain Education International
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