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१३८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
कार्य में विचित्रता पाई जाती है, उसका कारण एक स्वभाव - विशिष्ट नहीं होता । जैसे- अनेक धान्य - अंकुरादिरूप विचित्र कार्य, अनेक शालिबीजादि से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुख - दुःखादि विशिष्ट विचित्र कार्यरूप जगत् एक स्वभाव वाले ईश्वर के द्वारा कृत नहीं हो सकता। आशय यह है कि एक स्वभाव वाला ईश्वर क्षेत्र, काल तथा स्वभाव की अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय तथा जगत् आदि का कर्ता सिद्ध नहीं होता। यदि कहें कि यथावसर ईश्वर को वैसी इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जो (जगत् को) विभिन्न कार्यों को उत्पन्न करता है; तब या तो सारे जगत् में एक ही प्रकार का कार्य होता रहेगा, या फिर इच्छा के स्थान से अतिरिक्त अन्य स्थानों में कार्य का अभाव ही हो जाएगा। अतः यह जगत् वैचित्र्य ईश्वरकृत नहीं, स्व-स्वकर्मकृत है। गीता में भी कहा है - ईश्वर जगत् के कर्तृत्व, और कर्मों का सृजन तथा कर्मफल- संयोग नहीं करता, जगत् अपने-अपने स्वभाव तथा कर्मानुसार प्रवर्तमान है । "
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न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफल-संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
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- भगवद्गीता अ. ५ श्लो. १४
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