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कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२ ६७ पूर्वजन्म के वैर-विरोध की स्मृति से पूर्वजन्म की सिद्धि .: जैन सिद्धान्तानुसार नारक जीवों को अवधिज्ञान (मिथ्या हो या सम्यक्) जन्म से ही होता है। उसके प्रभाव से उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति होती है। नारकीय जीव पूर्वभवीय वैर-विरोध आदि का स्मरण करके एकदूसरे नारक को देखते ही कुत्तों की तरह परस्पर लड़ते हैं, एक-दूसरे पर मपटते और प्रहार करते हैं। एक-दूसरे को काटते और नोचते हैं। इस प्रकार वे एक-दूसरे को दुःखित करते रहते हैं। इस प्रकार पूर्वभव में हुए वैर आदि का स्मरण करने से उनका वैर दृढ़तर हो जाता है। ___नारकीय जीवों की पूर्वजन्म की स्मृति से पुनर्जन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। ___ रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से पूर्वजन्म सिद्धि-प्रायः जीवों में पहले किसी के सिखाये बिना ही सांसारिक पदार्थों के प्रति स्वतः राग-द्वेष, मोह-द्रोह, आसक्ति-घृणा आदि प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। ये प्रवृत्तियाँ पूर्वजन्म में अभ्यस्त या प्रशिक्षित होंगी, तभी इस जन्म में उनके संस्कार या स्मरण इस जन्म में छोटे-से बच्चे में परिलक्षित होते हैं। वात्स्यायन भाष्य में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है। आत्मा की नित्यता से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध - शरीर की उत्पत्ति और विनाश के साथ आत्मा उत्पन्न और विनष्ट नहीं होता। आत्मा तो (कर्मवशात्) एक शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर को धारण करती है। यही पुनर्जन्म है। पूर्व-शरीर का त्याग मृत्यु है और नये शरीर का धारण करना जन्म है। अगर वर्तमान शरीर के नाश एवं नये शरीर की उत्पत्ति के साथ-साथ नित्य आत्मा का नाश और उत्पत्ति मानी जाए तो कृतहान (किये हुए कर्मों की फल-प्राप्ति का नाश) और अकृताभ्युपगम (नहीं किये हुए कर्मों का फलभोग) दोष आएँगे। साथ ही उस आत्मा के द्वारा की गई अहिंसादि की साधना व्यर्थ जाएगी। आत्मा की नित्यता के इस सिद्धान्त पर से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्ध हो ही जाते है। जैनदर्शन तो आत्मा को ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अविनाशी, अक्षय, अव्यय एवं त्रिकाल स्थायी मानता है।'
१. (क) तत्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका (आचार्य पूज्यपाद) ३/४ (ख) परस्परोदीरित दुःखा।
-तत्वार्थसूत्र अ. ३ सू. ४ २. न्यायदर्शन, वात्स्यायन भाष्य पृ. ३२६ ३. (क) न्यायसूत्र भाष्य ३/२४१, . (ख) वही, ४/१/१0 आत्मनित्यत्वे प्रेत्यभावसिद्धिः। ४. "कालओ णं ण कयाइ णासी, ण कयाइ न भवइ, न कयाइ भविस्सइ य, धुवे णितिए
सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे ॥" -स्थानांगसूत्र ५/३/४३०
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