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१२८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
आहार कहते हैं । आहार ग्रहण करने वाले आहारक जीव के प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगि केवली पर्यन्त १३ गुणस्थान होते हैं, अनाहारक जीवों के पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ ये ५ गुणस्थान होते हैं । एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव एक या दो अथवा तीन समय तक अनाहारक रहते हैं । इस प्रकार आहारक और अनाहारक को लेकर जीवों की विभिन्नता भी कर्मकृत होती है।
निष्कर्ष यह है कि इन चौदह मार्गणा-द्वारों को लेकर जीवों की विभिन्न स्थितियाँ होने का मूल कारण कर्म है। आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ, कर्मों के कारण
__ आत्मा की इन विभिन्न अवस्थाओं को कर्मकृत बताते हुए तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में भी कहा गया है-"जिस प्रकार मल से आवृत मणि की अभिव्यक्ति विविध रूपों में होती है, उसी प्रकार विविध (ज्ञानावरणीयादि) कर्मों (कर्ममलों) से आवृत आत्मा की भी विविध अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती
चौरासी लाख जीवयोनि के अनन्त प्राणियों की कर्मकृत विभिन्न अवस्थाएं
इसके अतिरिक्त विश्व के विशाल रंगमंच पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमें अनन्त-अनन्त जीवों की सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, सौभाग्य-दुर्भाग्य, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, सुगति-दुर्गति, सुजातिदुर्जाति, सुस्पर्शवत्ता-दुःस्पर्शवत्ता, सुरसता-विरसता, सुगन्धिमत्ता- दुर्गन्धिमत्ता, अनुकूलता-प्रतिकूलता, इष्टसंयोग-अनिष्टसंयोग, इष्टवियोगअनिष्टवियोग आदि विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मनुष्यों में ही नहीं कुल चौरासी लाख जीवयोनि के प्राणियों में भी विचित्रता और विसदृशता देखी जाती है। मनुष्य जाति के विभिन्न जीवनक्षेत्रों में विभिन्नताएँ कर्मकृत हैं
इनमें से एक मनुष्य जाति को ही ले लीजिए। उसमें भी अगणित प्रकार की विभिन्नताएँ और विषमताएँ प्रतीत होती हैं। मनुष्य के वैयक्तिक जीवन में ही नहीं, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक-नैतिक जीवन में भी नाना प्रकार की भिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। १ मलावृतमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकविधेक्ष्यते ।
कर्मावृतात्मनस्तद्वत् योग्यता विविधा न किम् ?" - तत्वार्थ श्लोकवार्तिक १९१ २ देखिये-नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली विभिन्न कर्म प्रकृतियों का वर्णन
प्रथम कर्मग्रन्थ (विवेचन) (पं. सुखलालजी) पृ. ५० से ८९ तक ३ ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) पृ. २७ से २८ तक
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