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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य १२७ और किसी जीव में तेजोलेश्या और किसी में पद्मलेश्या अधिक होती है । यह जो जीवों में लेश्याओं का तारतम्य है, वह भी कर्म के कारण है । भव्य, सम्यक्त्व और आहार की अपेक्षा से कर्मकृत विभिन्नता
(१२) भव्य-जिस जीव में मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता हो, उसे भव्य' कहते हैं, जिसमें यह योग्यता न हो, वह अभव्य कहलाता है । अभव्य की अपेक्षा भव्य अधिक हैं । अभव्य का प्रथम गुणस्थान है, शेष तेरह गुणस्थान भव्य जीवों के हैं । परन्तु उनमें भी एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता नहीं है । पंचेन्द्रिय जीवो में भी भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव हैं । मनुष्यों में भी कई आसन्न भव्य होते हैं, कई दूरभव्य । इस प्रकार भव्य-अभव्य को लेकर कर्मकृत विभिन्नता पाई जाती है । कहीं कर्म का अत्यन्त निबिड़ उदय होता है इस कारण जीवं अभव्य ही बना रहता है, कहीं कर्मों के क्षय-क्षयोपशम से जीव भव्य होते हैं। जब तक मोक्ष न हो जाय तब तक सभी जीवों का एक या दूसरे रूप में कर्म से सम्बन्ध रहता है ।
(१३) सम्यक्त्व'-सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भी कर्मकृत विभिन्नताएँ पाई जाती हैं । सम्यक्त्व के भी कई भेद है-औपशमिक, मायिक, क्षायोपशमिक आदि तथा इसके विपरीत मिथ्यात्व के भी पांच तथा पच्चीस भेद होते हैं । इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भी जीवों में कर्मकृत विविधता होती है। सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व-मोहनीय एवं मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से कहीं त्रिविध मिथ्यात्व को लेकर और कहीं इन तीनों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से जीवों की विभिन्न स्थितियाँ बनती है। इन विभिन्नताओं का मूल कारण कर्म है। . (१४) आहार'-इसी प्रकार आहार और अनाहार को लकर भी जीवों की क़ई विभिन्नताएँ बनती है । आहार कहते हैं-शरीरनामकर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्यमनरूप बनने योग्य नोकर्म-वर्गणा के ग्रहण को । अथवा तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को भी
१ कर्मग्रन्थ भा. ३ विवेचन (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) पृ. ६ २ छदव्व णवपयत्या सत्त तच्च निद्दिट्ठा । । सद्दहइ तत्ताण रूव सो सद्दिट्टी मुणेयव्वो॥ -दर्शनपाहुड १/२
३(क) कर्मग्रन्थ भा. ३ विवेचन (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) पृ. ७ .. (ख) त्रयाणा शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्य-पुद्गल-ग्रहणमाहारः ।
-सर्वार्थसिद्धिः २/३०
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