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८६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
दृढ़ विश्वासी नमि राजर्षि ने जब उत्तम जीवन-निर्माण में बाधक राग-द्वेषकाम-क्रोधादि तथा तज्जनित अशुभ कर्ममल आदि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली, तब इन्द्र ने उनकी विभिन्न प्रकार से परीक्षा की, उसमें उत्तीर्ण होने पर प्रशंसात्मक स्वर में इन्द्र ने कहा - "भगवन् ! आप इस लोग में भी उत्तम हैं और आगामी (पर) लोक में भी उत्तम होंगे और फिर कर्ममल से रहित होकर आप लोक के सर्वोत्तम स्थान - सिद्धि (मुक्ति-मोक्ष) को प्राप्त करेंगे।""
पूर्वजन्म - पुनर्जन्म की मान्यता से आध्यात्मिक आदि अनेक लाभ
पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की मान्यता का इससे बढ़कर सर्वोत्तम लाभ और क्या हो सकता है ? फिर भी इस आदर्शवादी आस्था से इहलौकिक जीवन में मनुष्यता, नैतिकता, सदाचारपरायणता, परमार्थवृत्ति, स्वाध्यायशीलता, व्यवहारकुशलता, प्रसन्नता, सात्विकता, निरहंकारिता, अन्तर्दृष्टि, दीर्घदर्शिता, भावनात्मक श्रेष्ठता, सूझबूझ, धैर्य, साहस, शौर्य, चारित्रपराक्रम, प्रखरधारणाशक्ति, सहयोगवृत्ति आदि सैंकड़ों मानवीय विशेषताएँ उपलब्ध हो सकती हैं; जिनका आध्यात्मिक लाभ कम नहीं है, तथा दीर्घायुष्कता, स्वस्थता, सुख-शान्ति और सुव्यवस्था के रूप में व्यावहारिक और सामाजिक लाभ भी पुष्कल हैं। पारलौकिक जीवन में उसका मूल्य, महत्त्व और लाभ और अधिक सिद्ध होता है। इस प्रकार चतुर्थ आक्षेप का समाधान हो जाता है।
(५) पंचम आक्षेप : पुनर्जन्म की मान्यता अवैज्ञानिक - यह भी एक आक्षेप है - पुनर्जन्म को न मानने वालों का । इस विषय में उनका तर्क है कि “इस जन्म में कृत कर्मों का फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि "देवदत्त के वर्तमान कर्मों का फल यज्ञदत्त को अगले जन्म में भोगना पड़ेगा।" परन्तु यह आक्षेप भी निराधार है, और जैन कर्मविज्ञान के रहस्य को न समझने के कारण किया गया है। जैन कर्मविज्ञान के अनुसार जिस जीव (आत्मा) ने इस जन्म में कर्म किये हैं, वही आत्मा जन्मान्तर में उन कर्मों का फल भोगती है, दूसरी नहीं । यह आक्षेप तभी यथार्थ समझा जाता, जब इस जन्म की, अगले जन्म की और जन्मान्तर की आत्मा अलग-अलग हो । किन्तु आत्मा कभी विनष्ट नहीं होती। इस जन्म की
१. इहंसि उत्तमो भंते! पेच्चा होहिसि उत्तमो ।
लोगत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीरओ ॥
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-उत्तराध्ययनसूत्र अ. ९ गा. ५८
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