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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य १२१
प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है । इसका भी कोई न कोई कारण होना चाहिए । एक जीव नरकगति में पड़ा विविध यातनाएँ भोग रहा है, एक जीव देवगति में विविध वैषयिक सुखों का उपभोग कर रहा है, एक मनुष्य गति में सुख और दुःख, उन्नति और अवनति, विकास और ह्रास, तथा प्रेय और श्रेय के हिंडोले में झूल रहा है, और एक जीव तिर्यञ्च गति' में उत्पन्न 'होकर परवशता और पराधीनता के कारण नाना दुःख भोग रहा है । जीवों की इस गति को लेकर जो विभिन्नता है, उसका क्या कारण है ? जैन दार्शनिकों ने उन उन जीवों के द्वारा विभिन्न प्रकार से बांधे हुए कर्मों को ही इसका कारण माना है ।
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(२) इन्द्रिय - फिर देखिये, उन सांसारिक जीवों में इन्द्रियों की विभिन्नता । कोई एक (स्पर्श) इन्द्रिय वाला है, तो कोई दो इन्द्रियों वाला है, कोई तीन इन्द्रियों वाला जीव है तो कोई चार इन्द्रियों वाला और कोई पाँचों इन्द्रियों वाला है । जीवों को इन्द्रियों की प्राप्ति का यह अन्तर भी कर्म के अस्तित्व को स्पष्ट कर रहा है । इसके अतिरिक्त कोई अन्धा, काना, बहरा है, या लूला, लँगड़ा, इँटा या अंगविकल है, कोई नकटा है। इन सब इन्द्रिय विकलताओं - विरूपताओं का मूल कारण भी कर्म के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता ।
(३) काय - इसके पश्चात् देखिये उनके काय (शरीर) में भी कितना अन्तर है? कई सकाय (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव) हैं, जबकि दूसरे स्थावरकाय (पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय तक के जीव) अनन्त हैं । उनमें भी कोई पृथ्वीकायिक है, कोई अष्कायिक है, कोई तेजस्कायिक है, कोई वायुकायिक जीव है तो कोई वनस्पतिकायिक है । फिर इन्हीं षट्कायिक जीवों में प्रत्येक काय के असंख्य - असंख्य प्रकार हैं, वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त प्रकार हैं। इन षट्कायिक जीवों की काया को लैकर जो इतने-इतने अन्तर हैं, उनका कारण भी 'कर्म' के सिवाय और कोई नहीं हो सकता ।
-वचन-काया के योग को लेकर जीवों में विभिन्नता का कारण : कर्म
(४) योग - योग की दो परिभाषाएँ जैनाचार्यों ने की हैं - ( १ ) मन-वचन-काया का व्यापार या प्रवृत्ति - प्रयोग (२) पुद्गलविपाकी
गतियों को लेकर विभिन्नता भी कर्मजन्य है - "जं णरय-तिरिक्ख मणुस्स देवाणं •णिव्वत्तयं कम्मं तं गदिणामं । " - धवला १३/५/५
गति आदि के लक्षणों के लिए देखिये - तृतीय कर्मग्रन्थ विवेचन ( मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म. ) पृ. ४-५
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