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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
या विकृति तथा विभिन्नता आती है-विजातीय पदार्थों के संयोग से । प्रत्येक पदार्थ के अपने समान स्व-भाव, गुणधर्म और उसकी क्रिया से मेल खाने वाले पदार्थ सजातीय कहलाते हैं, जबकि उक्त पदार्थ के स्वभावादि से विपरीत स्वभाव आदि वाले पदार्थ विजातीय कहलाते हैं । जीव (आत्मा) के लिए अजीव (जड़-अचेतन) विजातीय पदार्थ हैं । जब जीव के साथ अजीव (जड़ या पुद्गल रूप अचेतन) का संयोग होता है, तब जीव (आत्मा) में विकृति, अशुद्धि या विभिन्नता उत्पन्न होती है ।'
भगवान् महावीर ने भी इसका समाधान करते हुए कहा था-"कर्म से ही जीव सुख-दुःख तथा शरीरादि नाना उपाधियाँ प्राप्त करता है ।"२ "कर्म से ही जीव विभिन्न अवस्थाओं, विषमताओं तथा विविधताओं को प्राप्त करता है, अकर्म से नहीं ।"३
निष्कर्ष यह है कि कर्म नामक अजीव (पुद्गल) ही एक ऐसा विजातीय पदार्थ है, जो आत्माओं की शुद्ध स्थिति को भंग करके उनमें भेद डालता है तथा विभिन्नता, विसदृशता और विरूपता पैदा करता है। चौदह द्वारों के माध्यम से कर्मरूप कारण का विचार
___ अब देखना यह है कि किन-किन पदार्थों को लेकर कर्म के कारण जीवों को कैसी-कैसी नाना उपाधियाँ, विषमताएँ, विस दृशताएँ अथवा विभिन्नताएँ प्राप्त होती हैं ? जैन कर्म-मर्मज्ञों ने वे १४ द्वार बताये हैं-(१) गति, (२) इन्द्रिय, (३) काय, (४) योग, (५) वेद, (६) कषाय, (७) ज्ञान, (८) संयम, (९) दर्शन, (१०) लेश्या, (११) भव्य, (१२) सम्यक्त्व, (१३) संज्ञी और (१४) आहार । इन चौदह बातों को लेकर जीवों में जो विभिन्नताएँ होती हैं, उनका मूल कारण कर्म ही है। गति, इन्द्रिय और काय को लेकर कर्मकारणक विषमताएँ
(१) गति-हम देखते हैं कि सांसारिक जीवों में मनुष्य, देव, नरक, तिर्यञ्च आदि अनेक प्रकार की विषमता, विसदृशता, विरूपता एवं विविधता १ कर्म-मीमांसा पृ. ७-८ २ 'कम्मुणा उवाही जायइ ।' -आचारांग १/३/१ ३ "कम्मओणं जओ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई ।"
- भगवतीसूत्र १२/५ ४ निम्नोक्त गाथा के अनुसार गति आदि १४ द्वारों को लेकर जीवों की कर्मजन्य
विषमता होती हैं:'गइ-इंदिय-काए जोए वेए कसाय नाणेसु । संजम दंसण लेस्सा, भव्व सम्मे सन्नि आहारे ॥' -चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ९
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