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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य १२३
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है । वे कानों से दूसरों की बोली या वाणी को सुन और समझ सकते हैं, परन्तु उसका उत्तर अस्पष्ट ध्वनि के रूप में ही दे सकते हैं । एक जाति के पशु अपने सजातीय की अव्यक्त भाषा को समझ सकते हैं । कुछ मनुष्य भी उनकी अव्यक्त-अस्पष्ट भाषा को समझ सकते हैं । मनुष्य को स्पष्ट भाषा की पर्याप्ति मिली है, परन्तु उनमें भी कोई मूक (गूंगा) और अस्पष्ट भाषी ( मुम्मुण शब्द करने वाला) होता है, कोई व्यवस्थित रूप से भाषण या संभाषण नहीं कर सकता, कोई स्पष्ट नहीं बोल पाता, जबकि कोई भाषण- संभाषणपटु होता है, वाग्मी तथा वाचाल भी होता है । इस प्रकार वचनकृत इन विभिन्नताओं में कर्म को ही कारण समझना चाहिए ।
(ग) काययोग' - किसी को छोटा या बड़ा, सरोग या नीरोग, दुर्बल या बलवान, हृष्ट-पुष्ट या मरियल, स्फूर्तिमान अथवा सुस्त, सुडौल या बेडौल, लंबा या ठिगना, काला कुरूप या गोरा - सुरूप शरीर मिलता है अथवा अमुक संहनन और अमुक संस्थान से युक्त शरीर मिलता है । अथवा किसी को कुत्ते-बिल्ली आदि पशुओं या मोर, चिड़िया आदि पक्षियों का या कीट-पतंग, सांप आदि का शरीर मिलता है तो किसी को विभिन्न आकृति व चेष्टा वाला मानव शरीर मिलता है । जीवों के शरीरों में जो विसदृशता, विभिन्नता और विचित्रता दिखाई देती है, इसके लिए पूर्वकृत कर्म को कारण मानना ही पड़ेगा । अन्यथा अमुक आत्मा को अमुक प्रकार का शरीर मिलता है, ऐसी व्यवस्था का समाधान कर्म के अतिरिक्त नहीं हो सकता । न्यायदर्शन भी इस तथ्य को स्वीकार करता है । भौतिक तत्त्वों का - शरीरोत्पत्ति का निरपेक्ष कारण मानने पर तो सब जीवों के शरीर और उनकी प्रवृत्ति एक सी होनी चाहिए, वह नहीं दिखाई देती। इसलिए शरीरोत्पत्ति में विविधरूपता कर्मसापेक्ष माननी चाहिए।
वेद को लेकर जीवों में विभिन्नता का कारण : कर्म
(५) वेद-सांसारिक जीवों में पुरुष और स्त्री, या नर और मादा के अन्तर के अतिरिक्त जीवों की कामवासना (वेद-वेदन) में जो अन्तर पाया जाता है, वह भी कर्म-कारणक मानना चाहिए । वेद की परिभाषा हैस्त्री, पुरुष या नपुंसक के साथ रमण करने की (मैथुन की ) अभिलाषा ।
१ देखिये - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में भी गति आदि को लेकर जीवों की विभिन्नता का मूल कारण कर्म को बताया गया है
"गइ-इंदिएसु काये जोगे वेदे कसाय णाणे य ।
संजम-दंसण-लेस्सा- भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥" गा. १४१
२ (क) जैन दृष्टिए कर्म, पृ. २४
(ख) न्यायदर्शन सूत्र ३ / २
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