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परामनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में पुनर्जन्म और कर्म
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इतिहास प्राध्यापक द्वारा छानबीन करने से बिल्कुल सही निकलीं। फिर यह बालिका परामनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का एक आकर्षण केन्द्र बन गई। जोय का दावा है कि उसे पिछले नौ जन्मों की स्मृति है। 'जोय' के अनुसार बहुत पहले के एक जन्म की उसे इतनी ही बात याद है कि डिनासार (डायनासोर) (प्राचीन भीमकाय पशु) ने एक बार उसका पीछा किया था। यह पाषाणकाल की घटना है। दूसरे जन्म में जोय दासी थी। उसके स्वामी ने अप्रसन्न होकर उसका सिर काट दिया था। तीसरे जन्म में भी वह दासी के रूप में रही। वह नाचती भी थी। चौथे जन्म में रोम में वह एक जगह रहती थी और रेशमी कम्बल और वस्त्र बुनती थी। पांचवें जन्म में वह एक धर्मान्ध महिला थी और एक धर्मोपदेशक को उसने पत्थर दे मारा था। जोय का छठा जन्म इटली में नवजागरणकाल में हुआ। उस समय वहाँ कला और साहित्य के क्षेत्र में नई जागृति उभार पर थी। उसके घर में दीवारों और छतों पर बड़े-बड़े चित्र अंकित थे। सातवां जन्म 'गुडहोप' अन्तरीप में १७वीं शताब्दी में हुआ। वहां वह ठिगने पीले रंग के लोगों में से थी। राज्याश्रय में पलने वाले व्यवसाय से उसका आजीवन सम्बन्ध रहा।
आठवें जन्म में वह अधिक विकासशील क्षेत्र में पैदा हुई। १९वीं शताब्दी की यह बात है। सन् १८८३ से १९00 तक वह ट्रांसवाल गणतंत्र के राष्ट्रपति 'ओम पॉल' के निवास भवन में आती-जाती थी। उसी दौरान उसने उससे सम्बन्धित सारे ऐतिहासिक संस्मरण प्रस्तुत किये थे। साथ ही कला और कारीगरी में उसे गहरी रुचि थी। नौवें वर्तमान जीवन में वह प्रीटोरिया नगर की एक छात्रा है। वह पिछले जन्मों के बारे में विस्तृत विवरण बताती रही। प्रत्येक जन्म में उसकी कलारुचि अक्षुण्ण रही।'
- इस बालिका के नौ जन्मों के संस्मरणों से एक ही तथ्य परिलक्षित होता है कि मनुष्य के विकास क्रम में एक सातत्य है, सतत् धारावाहिकता है। वह पिछले जन्मों के संस्कारों (कर्मजन्य कार्मणपरमाणुपुद्गलों) के साथ नया जीवन प्रारम्भ करता है। जीते-जी पूर्वजन्मों का ज्ञान एवं स्मरण
प्रसिद्ध योगी श्यामाचरण लाहिड़ी ने जीते-जी अपने पिछले अनेक जन्मों के दृश्य प्रत्यक्षवत् देखे थे। उस समय सन् १८६१ में वे दानापुर केंट (पटना) में एकाउंटेंट थे। अचानक उन्हें तार मिला-रानीखेत ट्रांसफर के आदेश का। वे वहाँ से रानीखेत पहुँचे। वहाँ आफिस में काम करते समय उनके कानों में बार-बार आवाज आई-निकटवर्ती द्रोण पर्वत पर पहुँचने की। वे तीसरे दिन द्रोण पर्वत पर पहुँचे। वहाँ एक अदृश्य अजनबी की
१. अखण्ड ज्योति फरवरी १९७५, में प्रकाशित लेख से सारांश पृ. ३४-३५
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