________________
कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
अपने पास आने के लिए आवाज आई। वे प्रकाश पुंज के पास पहुँचे। एक योगीराज एक गुफा के द्वार पर खड़े मुस्कराए। उन्होंने श्यामाचरण को सम्बोधित करके अपने पास बुलाने का कारण बताया। फिर श्रद्धाभिभूत योगिराज ने लाहिड़ी के मस्तक पर अपना दाहिना हाथ रखा। शीघ्र ही लाहिड़ी के शरीर में विद्युत-सी शक्ति और प्रकाश भरने लगे । तन्द्राएँ जागृत हो उठीं। मन का अन्धकार दूर होने लगा। ऋतम्भरा प्रज्ञा जाग उठीं। अलौकिक अनुभूतियाँ होने लगीं। लाहिड़ी ने देखा - "मैं पूर्वजन्म में योगी था, यह साधु मेरे गुरु हैं, जो हजारों वर्ष की आयु हो जाने पर भी शरीर को अपनी योग-क्रियाओं द्वारा धारण किये हुए हैं।" लाहिड़ी को याद आया कि "पिछले जन्म में उन्होंने योगाभ्यास तो किया, मगर सुखोपभोग की वासनाएँ नष्ट नहीं हुईं। फिर अव्यक्त दृश्य भी व्यक्तवत् और गहरे होते चले गए, जिनमें उनके अनेक जन्मों की स्मृतियाँ साकार होती चली ज रही थी।" इस प्रकार श्री लाहिड़ी ने अपने पिछले अनेक जन्मों के दृश्यों रं लेकर वहाँ पहुँचने तक का सारा वर्णन चल्चित्र की भांति दे लिया...
. | "१
१००
श्री लाहिड़ी द्वारा अनेक पूर्वजन्मों का प्रत्यक्षवत् दर्शन आत्मा और कर्म के चिरकालीन अस्तित्व को सिद्ध करता है। आत्मा के साथ प्रवाहरूप से कर्म का अनादित्व माने बिना पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त घटित. हो ही नहीं सकता।
महर्षि अरविन्द की प्रधान सहयोगिनी श्री मां जब मीरा रिचार्ड के रूप में फ्रांस में बाल्यावस्था व्यतीत कर रही थीं, तब उन्हें पूर्वजन्मों के कर्मजनित संस्कारों के फलस्वरूप दिव्य दर्शन हुआ करते थे। आचार्य विनोबा भावे ने अपने बारे में कहा था- "मुझे यह भास होता है कि मैं पूर्वजन्म में बंगाली योगी था । " साथ ही जिन वस्तुओं के प्रति जन-सामान्य में प्रबल आकर्षण होता है, उनके प्रति विनोबा में कदापि आकर्षण नहीं हुआ। इसे भी वे अपने पिछले जन्म की कमाई मानते थे। " २
निष्कर्ष यह है कि परामनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत पूर्वजन्म और पुनर्जन्मों की स्मृति की अनेकानेक घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि मरने के साथ ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता । एक जन्म या अनेक जन्मों के कर्मफल अगले एक या अनेक जन्मों में मिलने की बात भी प्रमाणित हो जाती है, आत्मा का स्वतंत्र और अनन्त अस्तित्व मानने से । और यह सिद्ध हो जाता है कि सभी पुनर्जन्मों का मूलाधार व्यक्ति के पूर्वकृत कर्म ही हैं।
१. (क) अखण्ड ज्योति मार्च १९७२, के लेख पर से सारांश पृ. ५२-५३ (ख) ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी (स्वामी योगानन्द)
२. अखण्ड ज्योति, फरवरी ७९, के लेख पर से सारांश पृ. ३५-३६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org