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कर्म- अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - २ ८९
कर्ममुक्ति की साधना में रत्तीभर भी लापरवाही, हानिकारक सिद्ध होगी। अशुद्धि और गलती को तुरंत सुधारना आवश्यक होगा । पुनर्जन्म के विश्वासी में यह भावना कदापि नहीं आनी चाहिए कि इतना तो सत्कर्म कर लिया, अब शेष जीवन में मनमानी मौज कर लें, सांसारिक सुख भोग कर लें। पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने वाला अन्तिम क्षण तक श्रेयस्पथ पर चलता रहेगा। अब तो थोड़े दिनों का जीना है, या चाहे जैसे दिन काटने हैं, स्वाध्याय-साधना, संयम-उपासना, ज्ञानादि - साधना एवं सेवा का पथ अपनाकर क्या होगा? ऐसी भावना पुनर्जन्म पर सच्ची आस्था रखने वाले में नहीं आ सकती। उसके लिए तो जीवन का प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक सत्कार्य महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कर्म और कर्मफल में उसकी अटूट आस्था रहती है। सच्चा पुनर्जन्मविश्वासी अपने भीतर विराजमान आत्मदेव को मनाने और उसी का सम्यक् विकास करने में दत्तचित्त रहता है, कर्मों के बन्धन से आत्मा को मुक्त करने का चिन्तन करता है। यही पुनर्जन्म सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक आध्यात्मिक प्रेरणा है।
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