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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्वं (१)
संस्कारों को जागृत करते हैं। उनमें से एक उद्बोधक है - जाति (जन्म)। जीव जिस प्रकार का जन्म प्राप्त करता है, उसके अनुरूप संस्कारों का उद्बोधक है-वह जन्म (जाति) । जाति के अतिरिक्त धर्माधर्म (पुण्यपाप-कर्म) भी अमुक प्रकार के संस्कारों के उद्बोधक हैं । पूर्वजन्म के जाति-विषयक जो संस्कार जिसमें उबुद्ध होते हैं; उसी को जाति- स्मरण ज्ञान होता है, मैं कौन, कहाँ और कैसा था ? "१
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‘जैन आगमों में जन्म-मरण को इसलिए दुःखरूप बताया है कि प्राणी को जन्म और मृत्यु के समय असह्य दुःखानुभव होता है। नये जगत् में प्रवेश इतना यातनापूर्ण होता है कि पूर्व (जन्म) की स्मृतियाँ प्रायः लुप्त हो जाती हैं। हम देखते हैं कि किसी व्यक्ति को गहरा आघात, सदमा, भयंकर चोट, उत्कट भय, असह्य शारीरिक पीड़ा या कोई विशेष संकट आदि होने पर वह मूर्च्छित (बेहोश ) हो जाता है, उस समय उसकी स्मृति प्रायः नष्ट - सी हो जाती है। '
प्रसिद्ध विचारक 'कान्चूग' ने स्मृति का विश्लेषण करते हुए कहा"जन्म से पूर्व शिशु में पूर्वजन्म की स्मृति होती है; लेकिन जन्म के समय उसे इतने भयंकर कष्टों के दौर से गुजरना पड़ता है कि उसकी सारी स्मरण शक्ति लुप्त हो जाती है ।" इसी प्रकार गहरा आघात लगने पर भी स्मृति नष्ट हो जाती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर सोचा जाए तो यह अच्छा ही है। यदि पहले (पूर्वजन्मों) की ढेर सारी स्मृतियाँ बनी रहें तो इतनी विपुल स्मृतियों के ढेर वाला उसका दिमाग पागल सी हो जाएगा। पूर्व के सारे घटनाचित्र मस्तिष्क में उभरते रहें तो वह उसी में तल्लीन होकर जगत् के व्यवहारों से उदासीन हो सकता है। असह्य संकटग्रस्त अवस्था में व्यक्ति मूर्च्छित न हो तो उसका जीवित रहना कठिन है। इसलिए उस समय काम के लायक स्मृति का ही रहना अभीष्ट है।
इस पर पुनः प्रश्न उठता है कि दुर्घटना या आघात की स्थिति में मरने के बाद नये जीवन में कतिपय व्यक्तियों को उसकी स्मृति क्यों होती है ?
इसके उत्तर में यही कहा गया है कि यह आपवादिक स्थिति है। किसी को बड़ी भारी दुर्घटना हो गई, तीव्र आघात लगा, हत्या कर दी गई,
१. न्यायदर्शन २/४/१
२. "जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य ।"
- उत्तराध्ययन १९/१६
३. 'घट-घट दीप जले' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) के 'पूर्वजन्म : पुनर्जन्म' प्रवचन से साभार
उद्धृत, पृ. ५७
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