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८२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
का सिद्धान्त आगामी लोक की चिन्ता या आसक्ति करना नहीं सिखाता, अपितु यह इस जन्म को सफल और सुन्दर बनाने की प्रेरणा देता है, ताकि आगामी जन्म अच्छा बन सके। पुनर्जन्म से परोक्ष प्रेरणा भी मिलती है, कि मनुष्य ऐसा अनासक्त और विवेक ( यतना) युक्त जीवन बिताए, जिससे पापकर्मों का बन्ध न हो या शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय हो। पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में फंसना अच्छी बात नहीं है। शंकराचार्य ने भी पुनः पुनः जन्म मरण को मनुष्य के लिए अनुचित बताया है। अतः यह आक्षेप भी व्यर्थ ही किया गया है।
(४) चौथा आक्षेप : पुनर्जन्म का मानना अनावश्यक - कई नास्तिकता से प्रभावित लोग यह आक्षेप करते हैं- " पूर्वजन्म और पुनर्जन्म; यह सब बकवास है, बौद्धिक लोगों की काल्पनिक उड़ान है। इन्हें मानने से क्या लाभ है और न मानें तो कौन - सी हानि है ?"
जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नहीं मानते, मनुष्य को एक चलताफिरता खिलौना मात्र समझते हैं; शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मृत्यु के साथ ही उसका अन्त मानते हैं, ऐसे लोग, जो जीवन की इतिश्री भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही समझकर अपनी मान्यता ऐसी बना लेते हैं कि जीवन वर्तमान तक ही सीमित है, तो उसका उपभोग जैसे भी बन पड़े करना चाहिए। नीति - अनीति, धर्म-अधर्म या कर्तव्य अकर्तव्य का विचार किये बिना ही जो लोग 'ॠण कृत्वा घृतं पिबेत्' वाली चार्वाकी नीति अपनाते हैं, वे भयंकर भूल करते हैं । वे सामाजिक दण्ड के भागी तो बनते ही हैं, अपना और अपने परिवार का अगला जीवन भी अन्धकारमय बना लेते हैं, क्योंकि पुनर्जन्म एक सुनिश्चित सिद्धान्त है, वह कर्म और कर्मफल
अस्तित्व को सिद्ध करने वाला मूल आधार है, इसे अधिकांश विचारशील मानव स्वीकार करते हैं। शुभकर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का अशुभ मिलना भी सुनिश्चित है । किन्हीं कारणों से यदि इस जीवन में किन्हीं कर्मों का फल नहीं मिलता, तो अगले जन्म (जीवन) या जन्मों में मिलना निश्चित है। फल ही नहीं, कर्मों के संस्कार भी सूक्ष्मरूप से कार्मण (सूक्ष्मता) शरीर के माध्यम से अगले जन्म या जन्मों में साथ-साथ जाते हैं और आगामी (नये) जीवन (जन्म) की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।
बालकों में ये विशिष्ट प्रतिभाएँ पूर्वजन्म को माने बिना कहाँ से आती ?
इसी कारण कई बालकों में जन्मजात विशिष्ट प्रतिभा, योग्यता, असाधारण गुण, विलक्षण स्वभाव आदि किसी पैतृक या आनुवंशिक गुण, १. पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
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