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कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२
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या स्वयं ने आवेश में आकर आत्महत्या करली। इन और ऐसी स्थितियों में यदि किसी की मृत्यु होती है, तो उसका आर्त-रौद्रध्यानजन्य संस्कार इतना प्रगाढ़ होता है कि भयंकर कष्ट होने पर भी उसकी स्मृति नष्ट नहीं होती। उस निमित्त के मिलते ही वह सहसा उभर जाती है। अर्थात्-किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का निमित्त मिलते ही वह उबुद्ध हो जाती
अतः पूर्वजन्म को जानने-मानने का प्रबल साधन है-पूर्वजन्मस्मरण अर्थात्-जाति-स्मृतिज्ञान, जो यहाँ नया जन्म लेने वाले शिशु को प्रायः होता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि इससे पूर्व भी वह कहीं था। इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति न होने का आक्षेप निराधार है।
(२) दूसरा आक्षेप : आनुवंशिकता का विरोधी सिद्धान्त-कई पुनर्जन्मविरोधी कहते हैं कि “पुनर्जन्म का यह सिद्धान्त आनुवंशिक परम्परा का विरोधी है, क्योंकि वंश परम्परा के सिद्धान्तानुसार जीवों का शरीर और मन, स्वभाव और गुण, आदतें और चेष्टाएँ, बुद्धि और प्रकृति आदि सभी अपने माता-पिता के अनरूप होने चाहिए।" परन्तु ये सभी गुण सभी सन्तानों में माता-पिता के अनुरूप प्रायः नहीं पाये जाते। ___वंशपरम्परागत गुण और स्वभाव मानने पर जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे गुण अगर सन्तान में हैं तो भी उनका अभाव मानना पड़ेगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है। प्रायः यह देखा जाता है कि जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे उनकी संतान में होते हैं। हेमचन्द्राचार्य में जो बौद्धिक प्रतिभा आदि गुण थे, वे उनके माता-पिता में नहीं थे। महाराणा प्रताप में जो शारीरिक शक्ति एवं स्वातन्त्र्य प्रेम था, वह उनके पिता एवं पितामह में नहीं था। कई पिता बहुत ही उच्चकोटि के विद्वान होते हैं, परन्तु उनके लड़के अशिक्षित और बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं। अतः पुनर्जन्म में वंश-परम्परा का सिद्धान्त न मानकर पूर्वजन्म के कर्मों के फल के अनुसार मनुष्य में गुण-दोषों की व्याख्या करना उचित होगा। अतः पुनर्जन्म के सम्बन्ध में यह आक्षेप भी समीचीन नहीं है।
(३) तीसरा आक्षेप : इहलौकिक जगतहित के प्रति उदासीनता-एक आक्षेप यह भी किया जाता है कि पुनर्जन्म की मान्यता से मनुष्य पारलौकिक जगत् की चिन्ता करने लगता है, इहलौकिक जगत् के प्रति उदासीनता और उपेक्षा धारण करने लगता है। किन्तु यह आक्षेप भी निराधार है।' पुनर्जन्म १. 'घट-घट दीप जले' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) के 'पूर्वजन्म : पुनर्जन्म' प्रवचन से साभार
उद्धृत, पृ. ५७-५८ २. भारतीय दर्शन की रूपरेखा (प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा) पृ. २५ ३. वही, पृ. २५
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