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कर्म - अस्तित्व के मूलाधार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - २ ७७
अंकित घटनाओं के चिह्न मिट जाते हैं। वह पुनः परिष्कृत संस्कारों के साथ वापस आता है।"
इस पत्र के लिखने का उद्देश्य चाहे जो हो, परन्तु 'गेटे' के उपर्युक्त कथन में पूर्वजन्म में विश्वास होने का दृढ़ प्रमाण मिलता है । '
अमरीका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. रैमण्ड ए. मूडी जूनियर ने कई वर्षों तक मरणोत्तर जीवन की दिशा में शोध प्रयास किया है। अपने अध्ययन निष्कर्ष उन्होंने 'लाइफ आफ्टर लाइफ' नामक पुस्तक में प्रस्तुत किये हैं । "
डॉ. लिट्जर, डॉ. मूडी और डॉ. श्मिट आदि जिन-जिन पाश्चात्य - वैज्ञानिकों (थेनेटालोजिस्टों) ने जितनी भी मृत्युपूर्व तथा मरणोत्तर घटनाओं के देश-विदेश के विवरण संकलित किये हैं, उन सबका सार यह था कि 'मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। मृत्यु के समय केवल आत्मचेतना ही शरीर से पृथक् होती है।' इससे भारतीय मनीषियों की इस विचारधारा की पुष्टि होती है कि मृत्यु का अर्थ जीवन के अस्तित्व का अन्त नहीं है। जीवन (जीव) तो एक शाश्वत सत्य है, उसके अस्तित्व का न तो आदि है, न अन्त। भगवद्गीता के अनुसार - "न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, अथवा ये (राजा) लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि हम सब लोग इससे आगे नहीं रहेंगे।"३ वास्तव में जन्म न तो जीवन (जीव या आत्मा) का आदि है, और न ही मृत्यु उसका अन्त।
अतः मृत्यु के बाद होने वाले ये अनुभव दृश्यों की बारीकियों के हिसाब से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, यह स्वाभाविक है। क्योंकि व्यक्ति का मन भी अपने सूक्ष्म संस्कारों को लेकर वहीं रहता है, उसकी मनःस्थिति दृश्य जगत् को अपने चश्मे से देखती है । परन्तु सबकी अनुभूतियों में जो समान तत्व है, वही वैचारिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह हैमरणोत्तर पुनः जीवन का अनुभव।
इन सभी अनुभूतियों से यही स्पष्ट होता है कि मरणोत्तर जीवन भी है । देहनाश के साथ ही वह जीवन समाप्त नहीं हो जाता, वह तो निरन्तर तब तक प्रवाहित होता रहता है, जब तक जन्म-मरण से और कर्मों से प्राणी सर्वथा मुक्त न हो जाए। अतः संसारी जीव के जीवन का अविच्छिन्न
१. अखण्डज्योति सितम्बर १९७९ के लेख से, पृ. १९
२. वहीं, अप्रैल १९७९ के लेख से सारांश, पृ. १३
३. (क) वही, जून १९७९ के लेख से सारांश पृ. १३ (ख) न त्वेवाहं जातु नाशं, न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव भविष्यामः, सर्वेवयमतः परम् ॥"
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- भगवद्गीता अ. २ श्लोक १२
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