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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
यद्यपि प्राचीन कर्म फल भोगने के बाद छूट जाते हैं, और उनके स्थान पर नये-नये कर्म आते और बंधते जाते हैं। यह सिलसिला मुक्त न होने तक. अनन्त-अनन्त जन्मों से चलता रहा है और चलेगा। कर्म-अस्तित्व से इन्कार : इहजन्मवादियों द्वारा
किन्तु कतिपय धर्म, दर्शन या मत-पन्य इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक आदि कई नास्तिक दर्शन तो कर्म के अस्तित्व को मानने से सर्वथा इन्कार करते हैं, तब फिर वे अनन्त-अनन्त पूर्वजन्मों और भविष्य के पुनर्जन्मों को मानते ही कैसे ? . कर्म के अस्तित्व के मूलाधार ः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म
चूंकि कर्म के अस्तित्व के मूलाधार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म है; उनको माने बिना इहलोककृत कर्मों के फल की तथा इससे पूर्व कई जन्मों में किये हुए कर्मों के शुभाशुभ फल की व्यवस्था ही नहीं बनती। इसलिए कर्म के अस्तित्व के सबसे बड़े आधार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म बनते हैं। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म : क्यों माने जाएँ ?
अगर पूर्वजन्म और पुनर्जन्म ये दोनों न हों तब तो यह नहीं कहा जा सकता था कि 'कर्म जन्म-जन्मान्तर तक फल देते हैं और जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वे अविच्छिन्नरूप से उसके साथ संलग्न रहते हैं।' किन्तु भारतीय दर्शनों के इतिहास का अध्ययन करने से यह तथ्य सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट हो जाता है कि केवल चार्वाक दर्शन को छोड़कर शेष सभी दर्शनों ने 'कर्म' की सिद्धि के लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म दोनों को एकमत से माना है। सभी भारतीय आस्तिक दर्शन इस तथ्य से पूर्णतया सहमत हैं कि "अपने किये हुए कर्मों का क्षय उनका फल भोगे बिना करोड़ों कल्पों तक नहीं हो पाता।" कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इसी जन्म में और कभी-कभी तत्काल मिल जाता है, किन्तु कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इस जन्म में नहीं मिल पाता, अगले जन्म में या फिर कई जन्मों के बाद मिलता है। प्रत्येक प्राणी की जीवन यात्रा : कई जन्मों से, कई जन्मों तक
कई बार हम देखते हैं कि एक अतीव सज्जन, नीतिमान एवं धर्मिष्ठ व्यक्ति सत्कार्य करने पर भी इस जन्म में उनके फलस्वरूप सुख नहीं पाता, जब कि एक दुर्जन, अधर्मी और पापी व्यक्ति कुकृत्य करने पर भी इस जन्म में लोकव्यवहार की दृष्टि से सुख और सम्पन्नता प्राप्त कर लेता है। १. (क) नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। (स) कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि ।
-उत्तराध्ययन सूत्र ४/२
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