________________
६०
कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१))
परोक्षज्ञानी केवल शब्दों को पकड़ पाता है, अथवा वह तीव्र जिज्ञास और परमश्रद्धालु हो तो आगम-प्रमाण (वीतराग-सर्वज्ञ-आप्तवचन) के द्वारा उनको (पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को) श्रद्धापूर्वक मान सकता है। परन्तु जिसमें श्रद्धा भी न हो, तीव्र जिज्ञासा भी न हो, वह तर्क, युक्ति, अनुमान, जल्प और वितण्डा के आधार पर अपनी पूर्वगृहीत बात को ही सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। वह प्रत्यक्षज्ञानियों की बात को समझने का प्रयास प्रायः नहीं करता। ऐसा व्यक्ति भी यदि जिज्ञासुबुद्धि से, सरलमति से समझना चाहे तो प्रत्येक तथ्य को तर्क एवं अनुमानादि शब्दों की शान पर चढ़ाकर समझ सकता है।
अतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रत्यक्षज्ञानियों ने जब सर्वप्रथम . अनुभव सिद्ध समाधान दिया तो बुद्धिवादी दार्शनिकों ने जिज्ञासा की"पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म होता है, इसका क्या प्रमाण है ?" उन्होंने उन्हीं की भाषा में उत्तर दिया-"हमारा वर्तमान जन्म जो प्रत्यक्ष है, वह मध्य विराम है। यदि मध्य जन्म है तो उससे पहले भी कोई जन्म था, और पश्चात् भी कोई जन्म होगा। मध्य उसी का होता है, जिसका पूर्व और पश्चात् हो। अतः उन्होंने स्पष्ट कहा-"जिसका पूर्व नहीं है और पश्चात् नहीं है, उसका मध्य कैसे होगा ?" मध्यजन्म प्रत्यक्ष है, इसलिए सिद्ध होता है कि पूर्वजन्म भी है और पश्चात् (पुनः) जन्म भी है।'
इस पर विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने तर्कों के तीर छोड़े। उन्होंने दर्शन के मैदान में बौद्धिक करों से तर्क के फुटबाल को बहुत उछाला। इनमें से अधिकांश दार्शनिकों का तर्क का फुटबाल ठीक स्थान पर जा लगा और उसने गोल (लक्ष्य) पार कर लिया। विभिन्न दार्शनिकों के तर्क, युक्तियों और अनुमानों आदि के द्वारा कैसे-कैसे पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को सिद्ध किया ? उसकी संक्षिप्त झांकी अगले निबन्ध में प्रस्तुत करेंगे।
१. (क) जस्स नत्यि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया।
-आचारांग श्रु. १, अ. ४, उ. ४ (ख) घट-घट दीप जले ( युवाचार्य महाप्रज्ञ) में प्रकाशित 'पूर्वजन्म-पुनर्जन्म' से,
पृ. ५३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org