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कर्म-अस्तित्व के मूलाधर : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२ ६३ विद्या (ज्ञान), कर्म और पूर्वप्रज्ञा उस आत्मा का अनुसरण करती हैं। इसी उपनिषद्' में कर्म का सरल और सारभूत उपदेश दिया गया है कि "जो आत्मा जैसा कर्म करता है, जैसा आचरण करता है, वैसा ही वह बनता है। सत्कर्म करता है तो अच्छा बनता है, पाप कर्म करने से पापी बनता है, पुण्य कर्म करने से पुण्यशाली बनता है। मनुष्य जैसी इच्छा करता है, तदनुसार उसका संकल्प होता है, और जैसा संकल्प करता है, तदनुसार उसका कर्म होता और जैसा कर्म करता है, तदनुसार वह (इस जन्म में या अगले जन्म में) बनता है।" ____ इसी उपनिषद् में एक स्थल पर कहा गया है-"जिस प्रकार तृणजलायुका मूल तृण के सिरे पर जाकर जब अन्य तृण को पकड़ लेती है, तब मूल तृण को छोड़ देती है, वैसे ही आत्मा वर्तमान शरीर के अन्त तक पहुंचने के पश्चात् अन्य आधार (शरीर) को पकड़ कर उसमें चली जाती है।" कठोपनिषद्, में भी बताया गया है कि "आत्माएँ अपने-अपने कर्म और श्रुत के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेती हैं।"२ .छान्दोग्य-उपनिषद् में भी कहा है कि जिसका आचरण रमणीय है, वह मरकर शुभ-योनि में जन्म लेता है, और जिसका आचरण दुष्ट होता है, वह कूकर, शूकर, चाण्डाल आदि अशुभ योनियों में जन्म लेता है।' कौषीतकी उपनिषद् में कहा गया है कि "आत्मा अपने कर्म और विद्या के अनुसार कीट, पतंगा, मत्स्य, पक्षी, बाघ, सिंह, सर्प, मानव या अन्य किसी प्राणी के रूप में जन्म लेता है।" - भगवद्गीता में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत-भगवद्गीता में कर्मानुसार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण मिलते है। गीता में बताया है कि "आत्मा की इस देह में कौमार्य, युवा एवं वृद्धावस्था होती है, वैसे ही मरने के बाद अन्य देह की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।"५ आगे कहा गया है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र जीर्ण हो जाने पर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा यह शरीर जीर्ण हो जाने पर पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को पाता है।" "जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित् है, जो मर गया है, उसका पुनः जन्म होना भी निश्चित है। अतः इस अपरिहार्य विषय में शोक करना उचित नहीं है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को
१. वृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/३-५ २. कठोपनिषद् २/५/७ ३. घान्दोग्योपनिषद् ५/१०/७ ४. कौषीतकी उपनिषद् १/२ ५. भगवद्गीता अ. २ श्लोक १३ ६.. वही, अ. २/२२ श्लोक ". वही, अ. २ श्लोक २७ .
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