________________
कर्म - अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - १
५९ (यथार्थ ज्ञाता सर्वज्ञ) अतीतार्थ को - अतीत के अनुसार ही भविष्य के होने की बात को, अथवा भविष्यार्थ को - भविष्य के अनुसार अतीत के होने की बात को, नहीं स्वीकार करते। उनका कहना है - अतीत (पूर्वजन्म) अथवा भविष्य (पुनर्जन्म - आगामी जन्म) जीवों के अपने-अपने कृतकर्मों के अनुसार ही होता है। अर्थात् पूर्व-जन्म हो या पुनर्जन्म सभी कर्मानुसारी हैं। अतः पवित्र आचरण - युक्त महर्षि इस सिद्धान्त को, अथवा पूर्वजीवन, पुनर्जीवन या वर्तमान जीवन के कर्म से अविच्छिन्न सम्बन्ध को जानकर कर्मों को (तपश्चरण आदि से ) धुनकर क्षय कर डाले।"
१
इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए भगवान् महावीर ने स्पष्टरूप से कहा - "अतीत में जैसा भी जो कुछ (अच्छा या बुरा) कर्म किया गया है, भविष्य में वह उस उस कर्म के अनुसार उसी रूप में उपस्थित होताआता है।" क्योंकि "सभी प्राणी अपने- अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण विभिन्न गतियों-योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं।" २
-
अतीत (पूर्व) लोक (गति) से आगमन (आगति) और भविष्य में (यहाँ से परलोक में) गति को भलीभांति जानकर अदृश्यमान इन दोनों अन्तोंजन्म और मरण या राग और द्वेष का जो त्याग कर देता है, वह फिर समग्र लोक में किसी के द्वारा छिन्न, विद्ध, दग्ध या नष्ट नहीं होता ।
• प्रत्यक्षज्ञानियों ने परोक्षज्ञानियों को युक्तिपूर्वक समझाया
प्रत्यक्षज्ञानियों ने अपने अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान (कवलज्ञान) के ` आधार पर जब पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व के विषय में स्पष्ट समाधान दिया, तब परोक्षज्ञान (इन्द्रिय प्रत्यक्ष) के अधिकारियों में ऊहापोह प्रारम्भ हुआ। किन्तु प्रत्यक्षज्ञानियों के अनुभवसिद्ध निष्पक्ष कथन को वे परोक्षज्ञानी कैसे पकड़ पाते ?, उसे समझने के लिए उनमें विकल प्रत्यक्ष ज्ञान की भी कुछ झांकी होती तो समझ पाते, अन्यथा, वे कैसे समझ पाते ?
-
१. अवरेण पुव्विं न सरंति एगे किमस्सतीय, किंवा आगमिस्सं ?
भासंति एगे इह माणवाओ जमस्स तीयं तयागमिस्सं ।
नाईयम न च आगमिस्सं, अटुं नियच्छंति तहागया य ।
विकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥ - आचारांग १/३/३/४० २. (क) जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं, तमेव आगच्छति संपराए ।'
- सूत्रकृतांग, १/५/२/२३
(ख) सव्वे सय कम्म कप्पिया ।
- सूत्रकृतांग १/२/६/१८
३. " आगई गई परिण्णाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं, से ण छिज्जइ, ण भिज्जइ, ण उज्झइ, ण हम्मइ कंचण सव्वलोए ।"
- आचारांग १/३/३/४००
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org