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कर्म - अस्तित्व के मूलाधार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - १
एक बार हस्तिनापुर में सम्भूत मुनि को भिक्षाटन करते देख वहाँ राज्यमंत्री नमुचि ने उन्हें मारपीट कर नगर के बाहर खदेड़ दिया। सम्भूतमुनि का क्रोध भड़का, तेजोलेश्या छोड़ी, जिससे सारा नगर धूमाच्छन्न हो गया। भयभीत नागरिकों एवं परिवार सहित चक्रवर्ती ने आकर क्षमायाचना की। कोप शान्त तो हुआ, किन्तु सम्भूत स्वतप के प्रभाव से भावी जन्म में चक्रवर्ती बनने का निदान कर बैठा। फलतः वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर दोनों देवलोक में गए। पांच जन्मों तक साथ-साथ जन्मे हुए चित्र और सम्भूत छठे मनुष्य लोक में अलग-अलग जगह में जन्मे । सम्भूत अपने निदानानुसार कम्पिलनगर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना और चित्र अपनी संयमाराधना के फलस्वरूप पुरिमताल नगर में श्रेष्ठी - पुत्र बना ।
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एक बार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को नाटक देखते-देखते पूर्व के पांच जन्मों का स्मरण हुआ। फलतः वह अपने पांच पूर्वजन्मों के साथी मित्र को याद करके शोकमग्न हो गया। उसकी खोज के लिए उसने एक श्लोक का पूर्वार्ध तैयार किया
'आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा । '
इस अर्धश्लोक की पूर्ति करने वाले को आधा राज्य देने की घोषणा करवाई। परन्तु इस रहस्य का किसे पता था ? संयोगवश चित्र (क जीव) को भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पिछले पांच जन्म उनके समक्ष चलचित्रवत् स्पष्ट दृष्टिगोचर हुए। वे मुनि बने और विहार करते हुए कम्पिल्यनगर में पधारे। उद्यान में ठहरे। वहाँ के अरहट्ट चालक के मुंह से आधा श्लोक सुनकर मुनि ने उसकी पूर्ति कर दी -
'एषा नो षष्ठिका जातिरन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ।"
इसकी पूर्ति का रहस्य खुलने पर चक्रवर्ती अपने पूर्व पांच जन्मों के साथी मुनि से मिले और पिछले पूर्वजन्मों के दोनों साथियों के इस जन्म में . वियोग होने के कारणों पर परस्पर विचार-विमर्श हुआ। अन्त में दोनों सदा के लिए एक दूसरे से वियुक्त हो गए।
१. (कं) देखिये उत्तराध्ययन सूत्र अ. १३ की चित्र सम्भूतीय कथा ।
.: (ख) सम्भूति के जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के उद्गार छह जन्मों के सम्बन्ध में : चक्रवर्ती - आसियो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा ।
अन्नमन्नमणुरत्ता अन्न-मन्न हिएसिणो ॥ ५ ॥ दासा दसणे आसी, मिया कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीरे य सोवागा कासिभूमीए ॥ ६ ॥ देवाय देवलोगम्मि आसी अम्हे महिड्डिया । इमा नो छट्ठिया जाई, अन्नमन्त्रेण जा विणा ॥७॥ मुनि - "कम्मा नियाणप्पगडा, तुमे राय ! विचिंतया । तेसिं फलविवागेण विप्पओग मुवागया ॥ ८ ॥
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