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कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ )
संसार का सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'संसार को क्लेशवासित' कहा है। अर्थात्-विषय और कषाय में अनुराग, कामनाओं का हृदय' में वास, मन में सतत चिन्ता, भीति आदि मनोवृत्तियों की हलचल तथा इसके द्वारा आत्म-प्रदेशों का सतत कम्पन ही संसार का सूक्ष्म स्वरूप है। संसार का स्थूल स्वरूप है - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव - इन चार गतियों में दुःखमय परिभ्रमण तथा जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि आदि अवस्थाओं का .. दुःखभोग। मानव हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया-प्रतिक्रियाओं में, वृत्ति प्रवृत्तियों में तथा राग-द्वेषात्मक हलचलों में संसार कर्मजनित दुःख का करुण-जल सींचता रहता है। इसीलिए भगवान महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है- “जितने भी अविद्यावान् पुरुष हैं, वे अपने लिये स्वयं दुःख उत्पन्न करते हैं, और मूढ़ बनकर अनन्त संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। " २
जहाँ संसार है, वहाँ रागद्वेषादि जनित कर्मजन्य दुःख हैं
जहाँ संसार है, वहाँ राग, द्वेष, मोह, तृष्णा आदि अवश्यम्भावी हैं। जहाँ ये होंगे, वहाँ कर्मों का आगमन (आस्रव) और बन्ध अनिवार्य है । फिर कर्मों के फल के रूप में नाना दुःख, क्लेश, संकट, अशान्ति, पीड़ा, सन्ताप और बैचेनी आदि प्राप्त होते हैं।
तृष्णा और मोह मिटते ही दुःख मिट जाता है
वस्तुतः भगवान् महावीर की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है कि “संसार के दुःखों का मूल कारण तृष्णा है।" तृष्णा के कारण ही अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का तथा प्राप्त वस्तु (इष्ट वस्तु के वियोग तथा अनिष्ट वस्तु का संयोग ) के प्रति असन्तोष प्रकट करने हेतु चिन्ता, शोक, मनस्ताप, विलाप, रुदन, पीड़ा आदि के रूप में आर्त्तध्यान होता है। हवा, पानी, प्रकाश, आकाश, प्रकृति का अनुपम दृश्य, झरने, नदियाँ, पहाड़ तथा सुन्दर मानवतन, मन, वचन एवं इन्द्रियों की शक्तियाँ आदि अनेक अनमोल वस्तुएँ मानव को मिली हैं, फिर भी साधारण अज्ञानी मानव को इस अलभ्य लाभ का सन्तोष एवं आनन्द नहीं है। इस कारण " तृष्णा या लालसा ही संसार दुःख का मूल कारण है।" जिसकी तृष्णा (चाह) मिट गई, उसकी चिन्ताएँ मिट गईं, उसका मोह मिट गया। मोह के समस्त कारणों के हटते ही
१ कामानां हृदये वासः संसारः परिकीर्तितः ।
२ जावंत विज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्ख संभवा ।
पति बहुसो मूढा संसारंमि अनंतए ॥
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- उत्तराध्ययन अ. ६ गा. १
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