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कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ )
उनका इस बात में विश्वास नहीं है कि कर्मों की यह परम्परा इस अनादिकालीन संसार में अतीत से चली आ रही है, और भविष्य में भी चलती रहेगी। अर्थात् इस शरीर के पंचभौतिक तत्त्वों के विनष्ट होने या बिखर जाने पर भी यह कर्म - परम्परा भविष्य में भी चलेगी। उनके मतानुसार प्राणि-जीवन की समस्त प्रवृत्तियाँ पंचभूत-संयोग से प्राणी के गर्भ काल या जन्म-काल से प्रारम्भ होती हैं और आयु के अन्त में शरीर के विनष्ट होते ही पुनः पंचभूतों में विलीन हो जाती हैं। अतः न तो वे अतीतकालीन कर्म . को जन्म, जरा, मृत्यु- व्याधिरूप संसार का कारण मानते हैं और न ही वे अनागतकालीन कर्म को मानते हैं। वर्तमानकाल में भी वे कर्म को संसार का कारण नहीं मानते हैं।
कर्म के कारण ही भूत-भविष्यकालीन विचित्रताओं से भरा संसार
परन्तु इन भूतवादियों के मत का निराकरण तो इसी युक्ति और प्रमाण से हो जाता है कि यह जन्म, जरा, मृत्यु - व्याधिरूप प्रत्यक्ष दृश्यमान संसार तथा एक ही साथ, एक ही समय में पैदा हुए दो बालकों के जन्ममरण का, सुख-दुःखादि का तथा अन्य प्रवृत्तियों - प्रकृतियों में वर्तमान में दिखाई देने वाला स्पष्ट अन्तर तथा भविष्य में जन्म लेकर पूर्वजन्म की घटनाओं को हूबहू बताने वाले का अतीतकालीन जीवन पूर्वजन्मकृत कर्मों के कारण को स्पष्ट उद्घोषित करता है। यही तो भूतकालीन तथा भविष्य-कालीन संसार है, जिसका मूलस्रोत कर्म के सिवाय और क्या हो सकता है ?
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ईश्वर - कर्तृत्ववादियों की दृष्टि में संसार का कारण कर्म नहीं, ईश्वर है
इसके अतिरिक्त एक विचारधारा और है, जो संसार की उत्पत्ति और विनाश का सम्बन्ध ईश्वर के साथ जोड़ती है। न्याय - दर्शन के अनुसार ईश्वर ही संसार का आदि सर्जक, पालक और संहारक है। वह शून्य से संसार का सृजन नहीं करता, किन्तु नित्य परमाणुओं, दिशा, काल, आकाश, मन तथा आत्माओं से करता है। उसे संसार का पोषक इसलिए कहा है कि संसार उसी की इच्छानुसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक इसलिए है कि संसार में जब-जब पापी, दुष्ट और अधर्मी बढ़ जाते हैं, तब-तब वह संहार भी करता है। अतः संसार का कारण कर्म नहीं, ईश्वर है । मनुष्य अपने कर्मों का कर्त्ता तो है, लेकिन वह ईश्वर के द्वारा अपने अदृष्ट (पूर्वकृत कर्म) के अनुसार प्रेरित होकर कर्म करता है। इसलिए ईश्वर ही संसार, संसारस्थ मनुष्यों तथा अन्य सभी प्राणियों का कर्म-व्यवस्थापक,
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