Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका और उसका समाधान
२५.
बतलाता है कि जिसमें जिस कारकि निष्पन्न होनेकी योग्यता विद्यमान नहीं है उसमें निमित्त अपने बलसे उस कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता है और यह बात हम भी मानते ही हैं कि मिट्टी में जब पटरूपसे परिणत होनेकी योग्यता नहीं पायी जाती है तो जुलाहा आदि निमित्तोंका सहयोग मिल जाने पर भी मिट्टीसे पटका निर्माण असम्भव ही रहेगा । इराका तात्पर्य यह है कि पादानमें अनुकूल स्वपरप्रन्यय परिणमनकी योग्यता न हो, लेकिन निमित्त सामग्री विद्यमान हो तो कार्य निरपरग नहीं होना । भी सरह उपायाने अनुकूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता हो लेकिन निमित्त गामग्री प्राप्त न हो तो कार्य नहीं होगा, यदि जपादानमें उक्त प्रकारकी योग्यता हो और निमित्त सामग्री विद्यमान हो, लेकिन प्रतिबन्धक बाह्य सामग्री उपस्थित हो जाये तो भी कार्य नहीं होगा। इस भौतिक विकासके युग में व्यमित पा राष्ट्र जितनी अभूतपूर्व एवं आश्चर्यमें डालनेवाली वैज्ञानिक खोजें कर रहे हैं ये सब हमें निमित्तोंके असीम शाक्तिबिस्तारको सूचना दे रही हैं।
पूज्यपाद आचार्यके उक्त श्लाकमें जो 'निमित्तमात्रमन्यस्तु' पद पड़ा हुआ है. उसका आशय यह नहीं है कि निमित्त उपादानको कार्य परिणतिमें अकिंचित्कर ही बना रहता है जैसा कि आप मान रहे हैं, किन्तु उसका आशय यह है कि उपादान में यदि कार्योत्पादनकी क्षमता विद्यमान हो तो निमित्त उरो केवल अपना महयोग प्रदान कर सकता है । ऐसा नहीं, कि उपादान में अविद्यमान योग्यताकी निष्पत्ति भी निमित्त द्वारा की जा सकती है। इससे यह तथ्य फलित होता है कि जिस प्रकार जैन संस्कृति वस्तुमें स्त्रप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार करती है उसी प्रकार वह मात्र परप्रत्यय परिणमनका दृढ़ताके साथ निषेध भी करती है । अर्थात् प्रत्येक वस्तुमें स्व अति उपादान और पर अर्थात् निमिन दोनोंके संयुक्त व्यापारसे निष्पन्न होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमनोक साथ साय जैन संस्कृति ऐसे परिणामन भी स्वीकार करती है जो निमितोंकी अपेक्षाके बिना केवल उादानके अपने बल पर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें वहाँ स्वप्रत्यय नाम दिया गया है, परन्तु किसी भी वस्तुमें ऐसा एक भी परिणमन किसी क्षेत्र और किसी कालमें उत्पन्न नहीं हो सकता है जो स्व अर्थात् उपाधानको उपेक्षा करके केवल पर अर्थात् निमित्त के मलपर निष्पन्न हो सकता हो । इस तरह जैन संस्कृतिमें मात्र परप्रत्यय परिणमनको दृढ़ताके साथ अस्वीकृत कर दिया गया है।
इस प्रकार आपका यह लिखना असंगत है कि "निमित कारणोंमें पूर्वोक्त दो भेद होनेपर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्य के प्रति समान है। कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं। क्योंकि इस तरहकी मान्यताकी संगति हमारे ऊपर लिखे कथनके अनुसार जैन संस्कृति की मान्यताबे विरुद्ध बैठती है।
आगे आपने स्वामी समन्तभद्रकी 'बाह्येतरोपाधिरामग्रतेय' इस कारिकाका उल्लेख करके बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंकी अर्थात् उपादान और निमित्तकारणों की समग्रताको कार्यात्पत्तिमें साधक मान लिया है यह तो ठीक है, परन्तु कारिकामें पठित 'धगतस्वभावः' पदका अर्थ समझनेमें आपने भूल कर दी है और उस भूलके कारण हो आप निमित्तको उपादानसे कार्योत्पत्ति होने में उपचरित अर्थात कल्पनारोपित कारण मानकर केवल उपादानसे ही कार्योत्पत्ति मान बैठे हैं। इसके साथ अपना एक कल्पित सिद्धान्त भी आपने विना आगमप्रमाणके अनुभव और तक विपरीत प्रस्थापित कर लिया है कि प्रत्येक समयमें निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार ही होती है। जिसका आशय सम्भवतः आपने यह लिया है कि उपादान स्वयं कायोत्पत्तिके समय अपने अनकल निमित्तोंको एकत्रित कर लेता है। और इस संभावनावी सत्यता इस आधारपर भी मानी जा सकती है कि आपने