Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (सानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कारण होते हुए भी प्रधान कारण नहीं है और अमुक पदार्थ उस परिणति में सहायक ( निमित्त ) कारण होते हुए भी प्रधान कारण है । इस तरह दर्पणकी यह परिणति निश्चयनयसे तो लोकमें पदार्थका प्रतिबिम्ब रूपमें मानी जाती है और व्यवहार नयसे यह दर्पणकी परिणति मानी जाती है। इसी प्रकार जीवमें जो रागादि भाष उत्पन्न होते है वे यद्यपि जीवके शुद्ध स्वभावकी विकृति मात्र होनेसे उपादानकारणभूत जीवको ही परिणतियाँ है, परन्तु उन्हें जोधकी परिणति न बोलकर आगममें यही बोला गया है कि वे पौद्गलिक है। ऐसा बोलनका कारण यह है कि जीव उन परिणतियोंमें उपादानकारण होते हुए भी प्रधान कारण नहीं है और पुद्गलफर्म उन परिणतियोंमें सहायक ( निमित्त ) कारण होते हुए भी प्रधान कारण है । इस तरह जीवकी ये रागादिभावरूप परिणतियां निश्चयनयस तो पानी बौदलकदई हैं और व्यवहारनयसे ये जीवकी परिणतियाँ मानी गई हैं।
___ यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस तरह दर्पणको बिकारी परिणति उपादानकारणभूत दर्पण गौण कारण है और उसमें सहायक ( निमित्त ) कारणभूत अमुक पदार्थ प्रधान कारण है। उसी प्रकार जीवकी रागादिभावरूप परिणतियोंमें उपादानकारणभूत भीष गौण कारण है और उसमें सहायक (निमित्त ) कारणभूत पौद्गलिक द्रव्यकर्म प्रधान कारण है 1
पूर्वपक्षके उपर्युक्त कथनके आशयपर ध्यान देनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने प्रकृत प्रकरणमें समयसार गाथा ६८ की टीकाको जो प्रमाणरूपसे प्रस्तुत किया है उसमे उसका उद्देश्य संसारी मात्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करना व उत्तरपक्षको मान्य उसमें सहायक न होने रूपसे उसकी ( द्रव्यकर्म के उदयकी ) अकिचित्करताका निषेध करना ही है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्तिके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य "उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है निमित्त नहीं" | इस विषयमें कोई विवाद नहीं है। दोनों पक्षोंमें विवाद केवल कार्योत्पत्तिमें निमित्तकी निमित्तकारणताके विषय में ही है और वह इस रूपमें है कि जहाँ पूर्वपक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है वहीं उसरपक्ष उसे वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर ही मानता है और कहता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तकारणकी सहायताके बिना अपने आप ही हो जाया करती है। पाठक देखेंगे कि उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें दोनों पक्षोंमें विद्यमान इस मतभेदको समाहित न कर पूर्वपक्षपर अनुचित आरोप लगानेकी असफल चेष्टा की है। उसने लिखा है कि
"पूर्वपक्ष यदि जीवके रागादि भावोंको निश्चयनयसे पौगलिक इस आधारपर मानता हो कि पुद्गल आप का होकर उस रूप परिणत होता है या इस आधारपर मानता हो कि जीवके रागादि भाव पगलके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले हैं तो उसको में दोनों प्रकारको मान्यतायें आगमविरुद्ध है।"
। ये दोनों ही आरोप कल्पित और दुरभिप्रायपूर्ण है, क्योंकि पूर्वपक्ष जीवके रामादि भावोंको निश्चयनयसे पौद्गलिक इसलिए नहीं मानता है कि पुद्गल कर्म उस रूप परिणत होता है या इसलिए नहीं मानता है कि जीवके वे रामादि भाव पुद्गल कर्मके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले हैं। प्रत्युत वह उन्हें मशुद्ध निश्चयनयसे पौद्गलिक इसलिए मानता है कि उनकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत जीव पूर्वोक्त प्रकार गौण कारण है और निमित्तकारणभूत पृद्गल कर्मका उदय पूर्वोक्त प्रकार प्रधान कारण है । स्वयं उत्तरपक्षने भी समयसार गाथा ६८ की आचार्य जयसेन द्वारा कृत टीकाके आधारपर' जीवके रागादि भावों