Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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परिणमनका बुताके साथ निषेध भी करती है। अर्थात् प्रत्येक वस्तुस्व अर्थात् उपादान और पर अर्थात् निमित्त दोनों संयुक्त व्यापारसे निष्पन्न होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमनके साथ- साथ जैन संस्कृति ऐसे परि मन भी स्वीकार करती है जो निमितोंकी अपेक्षाके बिना केवल उपादानके अपने बलपर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें वहाँ स्वप्रत्यय परिणमन नाम दिया गया है, परन्तु किसी भी वस्तुमें ऐसा एक भी परियमन किसी क्षेत्र और किसी कालमें उत्पन्त नहीं हो सकता है जो स्व अर्थात् उपादानकी उपेक्षा करके केवल पर अर्थात् निमित्त के बलपर निष्पन्न हो सकता हो । इस तरह जैनसंस्कृतिमें मात्र परश्यय परिणमनको दृढ़ता के साथ अस्वीकृत कर दिया है।" इसके आगे पृष्ठ २५ पर ही पूर्वपक्षने लिखा है कि "इस प्रकार आपका यह लिखना असंगत है कि 'निमित्तकारणोंमें पूर्वोक्त दो भेद होनेपर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्य के प्रति समान है । कार्यका साक्षात् उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं क्योंकि इस तरह की मान्यताको संगति हमारे ऊपर लिखे स्थन के अनुसार जैन-संस्कृतिको मान्यता के विरुद्ध बैठती है ।"
पूर्वपक्षके इन सम्पूर्ण कथनों की आलोचना में उत्तरपक्षने त० च० पृ० ६६ पर सर्वप्रथम लिखा है कि "बौद्ध दर्शन कारणको देखकर भी कार्यका अनुमान किया जा सकता है इसे स्वीकार नहीं करता। इसी बात को ध्यान में रखकर कंसः कारणरूप लिंग कार्यका अनुमापक होता है यह सिद्ध करनेके लिए यह लिखा है कि जहाँ कारण सामग्री की अविकलता हो और उससे भिन्न कार्यकी शापक सामग्री उपस्थित न हो वहाँ कारणसे कार्यका अनुमान करने में कोई बाधा नहीं आती। किन्तु हमें खेद है कि अपरपक्ष इस कथनका ऐसा विपर्यास करता है जिसका प्रकृटमें कोई प्रयोजन नहीं इसका विशेष विवार हम घटी शंकाके तीसरे दौर के उत्तरमें करनेवाले हैं, इसलिए इस आधार से यहाँ इसकी विशेष चर्चा करना हम इष्ट नहीं मानते । किन्तु यहां इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते है कि जिस प्रकार विवक्षित कार्यकी निर्वाचित वा सामग्री ही नियत हेतु होती है उसी प्रकार उसकी विवक्षित उपादान सामग्री ही नियत हेतु हो सकेगी। अतएव प्रत्येक कार्य प्रत्येक समयमै प्रतिनियत आभ्यन्तर बाह्य सामग्रीको निमित्त कर ही उत्पन्न होता है ऐसा समझना चाहिए | स्वपरप्रत्ययपरिगमनका अभिप्राय भी यही है। इसपर से उपादानको अनेक योग्यतावाला कहकर बाह्य सामग्री के बलपर चाहे जिस कार्यकी उत्पत्तिकी कल्पना करना मिया है ।"
दोनों पक्षों के उपर्युक्त कथनों के विषय में निम्नलिखित कथन कर देना ही पर्याप्त समझता हूँउत्तरपक्षकी मान्यता है कि प्रत्येक कार्य उपादानकी अपनी योग्यता के बलपर ही निष्पन्न हो जाता
है निसि यहाँपर सर्वपा बकिचित्कर ही बना रहता है।
पूर्वको मान्यता है कि प्रत्येक कार्य उपादानकी अपनी योग्यता के बलपर तो होता है परन्तु निमित्तका सहयोग मिलनेपर ही होता है न मिलनेपर नहीं होता है। इसलिए निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणति सर्वथा अकिंचित्कर न रहकर सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करता है।
पूर्व० ० ० २५ पर निर्दिष्ट उपयुक्त वक्तव्योंके आधारपर अपने मन्तव्यको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया है और उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ६६ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त वक्तव्य द्वारा अपने मन्तव्यको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया है । यतः इस समीक्षायें में सर्वत्र यह स्पष्ट कर चुका हूं कि पूर्वपक्ष की मान्यता आगमसम्मत है व उत्तरपक्ष की मान्यता आगमविरुद्ध है। अतः अब यहां इस विषय कुछ भी लिखना बाव श्यक नहीं रह गया है ।