Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते हैं ।" इस पर मेरा कहना है कि उत्तरपक्षा उपादानसे होने वाले कार्यमें निमितको जब अकिंचित्वर ही मानता है तो उपादानके अनुसार कार्यकालमें निमित्त मिलने न मिलनेका उत्तरपक्षके लिए क्या महत्त्व रह जाता है ? पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि जिस समय जैसे निमित्त मिलते हैं या मिलाये जाते हैं उस समय उस उपादानसे उसकी योग्यताके आधारपर उन निमित्तोंके अनुकूल ही कार्य निष्पन्न होता है।
(च) लत्तरपक्षका यह भी कहना है कि उपादान जम अपना कार्य करनेके सम्मुख होता है तब उस कार्यके अनुकूल निमित्त अवश्य ही मिलते हैं । लेकिन उसकी यह मान्यना मिथ्या है, क्योंकि प्रश्नोत्तर एकको समीक्षामें प्रमाणों के आधारपर मैं स्पष्ट कर चुका है कि उपायान की कार्य के प्रति सम्मुखता प्रेरक निमित्त के जलसे ही होती है और वहीं पर यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि उपादानम कार्योत्पत्ति के लिए उदासीन मिनितोंका सनाव जाधक कारणों का अभाव भी अपेक्षित रहता है ।
इस विवेचनसे निर्भाव होता है कि उत्तरपक्षका "जो उपादानकी सम्हाल करता है" इत्यादि कथन अनर्गल प्रलाप मात्र है और जो उसके स्वयंके लिए एक मुसीबत है।
(७) इस विवेचनसे उत्तरपक्षका "इस जीवका अनादिकालसे परद्रव्यके साथ संयोग बना चला आ रहा है। इसलिये वह संयोग कालमे होनेवाले कायोंबो जन जिस पदार्थका संयोग होता है उरासे मानता चला आ रहा है। यही उसकी मिथ्या मानता है।" यह कथन भी महत्वहीन हो जाता है। तत्वजिज्ञासुओंको इस पर ध्यान देना चाहिये।
(८) उत्तरपक्षने अपने प्रकुत वक्तव्यके अन्त में जो यह लिखा है कि 'अतएव प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामों के अनुसार ही पुष्प, पाप और धर्म होता है, जीवित शरीरको क्रियाके अनुसार नहीं-यही पहा निर्णय करना चाहिए और ऐसा मानना हो जिनागम के अनुसार है।" सो में स्पष्ट कर चुका हैं कि जोधकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म अधर्ममें शरीरके अंगभूत द्रव्यमान, वचन और शरीर तीनोंके सहयोगसे होनेवाली तथा जीवकी क्रियावती दाक्तिके परिणामस्वरूप शुभ और अदाम प्रवृतिरूप तथा इस प्रकारको प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और कायंगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप जीवित शरीरको क्रिया ही यथायोग्यरूपमें कारण होती है। इस तरह उत्तरपक्षके "प्रत्येक जीबके परिणामोंके अनुसार ही पुण्य, पाप और धर्म होते है।" इस कथनमें कोई विवाद नहीं रह जाता है, क्योंकि जीवकी भाववती शक्तिके परिणमन स्वरूप पुण्य, पाप और धर्म में जीवके जिन परिणामोंको उत्तरपक्ष कारण मानता है के परिणाम निविवादरूपस जीवको भानवती शक्तिके ही परिणमन है तथा उनकी प्रेरणासे शरीरके अंगभूत द्रश्वमन, वचन और शरीरके सह्योगसे होने वाली जीवकी कियारूप जीक्ति शरीरकी क्रियायें जीवकी क्रियावती शक्ति के परिणमन है । इसके आधारपर मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं, कि "प्रत्येक प्राणीको अपने परिणामोंके अनुसार पुण्य, पाप और धर्म होता है" इस कयनका अभिप्राय उत्तरपक्षको इस रूपमें ग्रहण करना बाहिए कि जिस जीक्ति शरीरको क्रिया में जीवका उपयोग लग रहा हो वह तो जीवकी क्रिया है और जिस जीवित शरीरकी क्रियामें जीवका उपयोग नहीं लग रहा हो वह जीवकी क्रिया न होकर वह शरीर की ही क्रिया है। इस तरह पृथ्य, पाप और धर्म जीवकी क्रियारो ही सिद्ध होते है शरीकी क्रियासे नहीं । इस तरह यदि उत्तरपक्ष मेरे इस कथन पर ध्यान देता है तो उसे पूर्व पक्षको जीवित शरीरको क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है-इस मान्यताको स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।