Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 439
________________ २५२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा करता है कि जयला शुद्धभावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा गया है । परन्तु उसने जयध्वलाके वचन के अभिप्रायको भी स्पष्ट करनेकी चेष्टा नहीं की, जो आवश्यक थी । वास्तवमें जयधवलाका जो "सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्माखयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो" यह वचन है इसके अभिप्रायको मैंने सामान्य समीक्षा में विस्तारसे स्पष्ट कर दिया है जो प्रकृतमें संक्षेपसे इस प्रकार है कि अदयाभूत अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिके रूप में शुद्ध और प्रवृति में जनकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप जीवदया के दवाभूत शुभ प्रवृत्ति रूप शुभ अंशसे आस्त्र और बन्ध होते हुए भी उसके अयाभूत अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप शुद्ध अंशसे रॉबर और निर्जराके रूपमें कर्मक्षय होता है । यदि उत्तरपक्ष जयवलाके उक्त वचनके इस आशयको समशनेको चेष्टा करता तो विश्वास है कि उसने अपने द्वितीय दौर में जिस प्रकार पुण्यभूत जीवदयासे पृथक् वीतराग परिणतिरूप जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवययाको स्वीकार कर लिया उसी प्रकार वह पुण्यभूत जीवदया से पृथक् व्यवहारधर्म प जीवदया को भी स्वीकार कर लेता और तब उसे पूर्वपक्षकी यह बात भी समझ में आ जाती कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म के रूपमें व इस निश्चयरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारणभूत व्यवहारधर्म के रूपमें धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है । प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा प्रस्तुत आगमवचनोंपर विचार उत्तरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में यहाँ सर्वप्रथम आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पद्य २१२, २१३ और २१४ को व इनके आगे पद्य २९६ को उपस्थित किया है। इतना ही नहीं, आगे समयसार गाथा १५० और उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको भी उपस्थित किया है और उन सब आगमप्रमाणोंके आधारपर उसने यह निष्कर्ष निकाला है कि "इस प्रकार इस कथन से स्पष्ट है कि शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन करना हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है। उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है ।" इसपर मेरा कहना है कि आगम में पुण्यरूप जीवदया को भी मोक्षका कारण माना है। परन्तु इस सम्बम्धमें पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि पुण्यरूप जीवदया जीवकी संकल्पीपापमय अदयासे घृणा उत्पन्न होने में सहायक होती है और इस घृणाके बलपर ही वह जीव उस संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर देता है तथा इस स्थितिमें वह जीव जो पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति करता है उसे वह अशक्तियण आरम्भीपापके रूपमें ही करता है, साथ ही वह कर्तव्यवश दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी नियमसे किया करता है। इस तरह संकल्पपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृतिके साथ जीव जो पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करता है वह व्यवहारधर्मरूप दामें ही अन्तर्भूत होती है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती कि पुण्यभूत जीवदया व्यवहारधर्म रूप जीवदया - की उत्पत्ति कारण होती है तथा इस आधारपर ही आगममे पुग्यभूत जीवदथाको परम्परया मोक्षका कारण माना गया है । वास्तव में तो पुष्पभावरूप जीवदया शुभ प्रवृतिरूप होनेसे कर्मकि आस्रव और वन्धका ही कारण होती है और पूर्वपक्ष भी ऐसा ही स्वीकार करता है। इससे निर्णीत होता है कि पूर्वपक्ष पुण्यभाव रूप जीवदयाको उस प्रकार मोक्षका कारण नहीं मानता जिस प्रकार व्यवहारधर्मरूप जीवदया मोक्षका कारण होती है। इस तरह पूर्वपथ पुण्यभावरूप जीवदयाको पुण्यभाव रूप ही मानता है वह उसे धर्मरूप " . +

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