Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान ४को समीक्षा
धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसारदुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातन्त्रय रूप मोक्षसुखमें पहुंचा देता है। आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण
रत्नकरण्डश्रावकाचार में आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके रूपमें किया गया है जिन सभ्यरदर्शन, सम्यग्ज्ञानाचारिय शिबिर्सन, मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते है।
आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधक भाव
श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढाला में कहा है कि आत्माका हित सुख है। वह सुख आकुलताके अभावमें प्रकट होता है। आकुलताका अभाव मोझमें है, अतः जीवोंको मोक्षके मार्गमें प्रवास होना चाहिए । मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप है1 एवं वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो भागों में विभक्त है । जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र सत्यार्थ अर्थात् आरमाके शुद्ध स्वभावभूत है उन्हें निश्चयमीत मार्ग कहते हैं व जो सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र निश्चयमोक्षमार्गके प्रगट होनेमें कारण हैं उन्हें व्यबहारमोक्षमार्ग कहते है।
छहहालाके इस प्रतिपादनसे मोक्षमार्गका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सभ्यकचारित्र के रूपमें विश्लेषण, उनकी निश्चय और व्यवहार दो भेदरूपता व निश्चय और व्यवहार दोनों मोक्षमागोंमें विद्यमान साध्यसाधकभाव इन सबका परिज्ञान हो जाता है। इसके अतिरिक्त पंचास्तिकायको गाथा १०५ की भाचार्य जयसेन कृत टीकामे भी व्यवहारमोक्षमार्गको निश्चममोक्षमार्गका कारण बतलाकर दोनों मोक्षमार्गोंमें साध्यसाघकभान मान्य किया गया है। तथा गाथा १५९, १६. और १६१ की आचार्य अमतचंद्र कृत टीका" में भी ऐसा ही बतलाया गया है।
१. देशयामि समीधीनं धर्म कर्ममिवहणम् । ___ संसारदुःखत: सल्वान् यो घरत्युत्तमे मुखे ।।२।। रत्नकरण्डश्रावकाचार २. सदृष्टिज्ञानप्रत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।।
यदीपप्रत्यनोकानि भवन्ति भयपद्धतिः ||३|| आतम को हित है सुन्न सो सुख आकूलता बिन कहिये । आफूलता शिवमाहि न तातें शिवमग लाग्यो चहिये ।। सभ्यदर्शन ज्ञान चरण शिव मग सो दविध विचारो।
जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो बबहारों ॥३-२०॥ ४. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभतो व्यवहारमोक्षमार्ग: ।-गा.१०५, टीका। ५. (क) निश्चमण्यवहारयोः साध्यसाक्कभावत्वात् । गा० १५९ की टीका
(ख) निश्चयमोक्षमार्गसाधकभावेन यहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । मा० १६० की टीका । (ग) व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । गा० १६१ की टीका ।
स०.३५