Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 488
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा ३०१ सभी स्थुल और उनमें अन्तमग्न क्षण-क्षणवर्ती सभी सूक्ष्म पर्यायें सद्भूतव्यवहारकारण न होकर अनित्य उपादानकारणके रूप में निश्चयकारण ही होती हैं। यह मान्यता इस माघारपर निरस्त होती है कि पूर्वोक्त प्रकार कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्यको ही अनित्य उपादानकारण मान्य किया जा सकता है, केवल कार्याध्ययहित पूर्वपर्यायको नहीं, क्योंकि कार्यरूप परिणति तो द्रव्यकी ही होती है। इतना अवश्य है कि द्रव्यको वह कार्यरूप परिणति द्रव्यके कार्याव्यवहित पूर्वपर्यायरूप परिणत हो जानेपर ही होती है । ___ तात्पर्य यह है कि यद्यपि मिट्ठी में घटपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब मिट्टी कुशुलपर्यायरूप परिणत हो जाती है । तथा पिट्टीमें कुशूलपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब यह मिट्टी कोशपर्यायरूप परिणत हो जाती है। एवं मिट्टी में कोशपर्यायकी उत्पत्ति तभी होती है जब वह मिट्टी स्थासपर्यायरूप परिपत हो जाती है, परन्तु वहाँ उपादानकारण तो मिट्टीको ही माना जा सकता है, उन पर्यायोंको नहीं । इसमें हेतु यह है कि उस-उस कार्यरूप परिणतिको उन पर्यायोंकी परिणति न मानी जाकर मिट्टीकी हो मान्य करना युक्त है, क्योंकि उन पर्मायोंका तो विनाश होकर ही मिट्टीमें उस-उस कार्यकी उत्पत्ति होती है । इतना अवश्य है कि मिट्टी में कोशपर्याय स्थासपर्याय पूर्वक होती है, अतः कोशपथविमें वह स्थासपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है । तथा मिट्टी, कुशूलपर्याय कोशपर्याय पूर्वक होती है, अतः कुशूलपर्यायमें वह कोशपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है । एवं मिट्टी में घटपर्याय कुशूलपर्याय पूर्वक होती है, अतः घटपर्वायमें वह कुशूलपर्याय सद्भूतव्यवहारकारण होती है । (५) उत्तरपक्षकी पांचवी मान्यता यह है कि निश्चयकारणके काव्यिवहित पूर्वपर्यायरूप परिणत होनेपर कार्योत्पत्ति नियमसे होती है। __मह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि इस समीक्षा पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निश्चयकारणरूप मिट्टीमें घटपर्यायसे अव्यवहित पूर्वपर्यायरूप कुशलपर्यायका विकास हो जानेपर भी यदि असद्भुतब्यवहारकारणरूप कुम्भकार उस अवसरपर अपना तदनुकूल क्रियाव्यापार रोक देता है तो उस मिट्टीमें तब उस घटपर्याय रूप कार्यको उत्पत्ति भी रुक जाती है। यही व्यवस्था स्यासपर्याय, कोशपर्याय और कुशलपर्यायरूप कार्योंकी उत्पत्तिमें भी असद्भुत व्यवहारकारणरूप कुम्भकारकी अरेक्षा जान लेना चाहिए । तात्पर्य यह है कि मिट्टीमें स्थाससे लेकर क्रमशः कौश, कुशूल और घट पर्यायोंकी उत्पत्ति कुम्भकारके तदनुकूल क्रियाव्यापारका योग मिलनेपर ही होती है और न मिलनेपर नहीं होती है । फलतः जिस क्षण में कुम्भकार अपना तदनकल कियाव्यापार रोक देता है उसी क्षणसे आमेकी पयिोंकी उत्पत्ति भी वक जाती है, ऐसा जानना चाहिए । ___इस विवेचनसे एक बात यह भी साष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्तिमें निश्चयकारणकी तरह सद्भुतव्यवहारफारणके साथ असद्भूतव्यवहारकारण भी कार्यकारी होते है । इतना अवश्य है कि कार्योस्पत्ति में अहाँ मिश्षयकारण कार्यरूपसे परिणत होमेसे कार्यकारी होता है वहाँ सद्भुत व्यवहार कारण उस कार्योत्पत्तिमें इस रूपसे कार्यकारी होते हैं कि कार्योत्पत्तिमें सद्भतव्यबहारफारणरूपकार्याव्यवहित पूर्वपर्यायके रूप में निश्चयकारणका परिणमन हो जानेपर ही वह निश्चयकारण कार्यरूप परिणत होता है। इसी प्रकार असद्भूतव्यवहारकारण उस कार्योत्पत्ति में इस रूपसे कार्यकारी होते है कि निश्चयकारणको कार्यरूप परिणति

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