Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 500
________________ -- - -- - शुद्धिपत्र पंक्ति शुद्धि २७ २४ M. P. २५ उनमें २८ अशुद्धि स० च० पू० ४८ ला प० पृ. ४७ अपरपसने सभी अपरपक्षने "सभी क्योंकि न हमारी क्योंकि न पूर्वपक्षकी हमारे इस कथनपर पूर्वपक्षके इस कथनपर समझमें आ जाती है और समझमें आ जाती और "मापने लिखा है कि" "आपने लिखा है कि निश्चयनयसे नहीं "सर्वत्र निश्चयनयसे नहीं" सर्वत्र उसे हमारे" दो द्रव्योंकी हमारे "दो न्योंकी कार्यरूपसे उत्पन्न हुआ करता है कार्यरूपसे उत्पन्न हुषा" मान्य करता है स्वीकार किया गया है। स्वीकार किया गया है। यथार्थ अयथार्थघटपर्माय या घटपर्यायसे उसमें और असद्भुत असद्भूत सामग्रीका सामग्रीको अतः इस प्रकार अत: जिस प्रकार सद्भूतघयवहारमयका और सदभूतव्यवहारमयका विषय है और लिखा है "फि परन्तु लिखा है कि "परन्तु जो वस्तु कार्यरूप अर्थात् जो वस्तु कार्यरूप कहा जाता है? कहाँ आता है? सिद्ध करते हुए सिद्धि करते हुए निश्चयनयका नहीं । प्रकट है निश्चयनयका नहीं, प्रकट है यह चिम्स्य है। किया जाना कल्पनारोपित किया जाना व्यवहारनयका विषय होनेपर भी कल्पनारोपित (बाह्य सामग्री में) बाह्य सामग्रीमें उपादानको सहकारिता एवं उपादानकी सहकारिता है एवं मान लेनमें न आगमविरोष है मान लेने में निमित्तताकी व्यबहारनयविषयताके साथ न आममविरोध है अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें अपना उपर्युक्त वक्तव्य बास्तविक मानता वास्तविक मानता है यथार्थकारण या यथार्थकर्ता नहीं यथार्थकारण था यथार्थकर्ता नहीं मानता है मानता अपितु अयथार्थकारण और अयथार्थकर्ता (उपचरितकाती) मानता है १२० १२२ १२५ १२५ १२५ १२५ १२५ १२६ १२ _ १२६ ..-.- -..

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