Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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पुरु २०९
पंक्ति २९
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२११ २१६ २१७ २२३ २२४ २२४ २२४ २२४
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२२५१ २२५ २० २२५ २२६ २२७ २२८
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अशुद्धि गुरुको हितकर
गुरुको अहितकर अशिक्तवश
সন্ধি परिणमन हूँ
अथासंभव मानसिक, वाचनिक या कायिक
परिणमन है व्यवहार धर्म
व्यवहारधर्म और व्यवहार अधर्म हो जाता कि
हो जाता है कि कहना ही
मान्य करना हो (सच० ० ७९)
(त: च० १.० ८१) कि परमभावग्राहो
फि 'परमभावनाही तद्भूत व्यबहार और ससद्भुत ससद्भूत व्यवहार और अमदभूत लक्षण है, पूर्वपक्ष इसलिए
पूर्वपक्ष भी अयथार्थ कारण मानता है, परन्तु
वह इसलिये यह प्रश्नोत्तर
यह बात प्रश्नोत्तर दृष्टि रूपमें
दृष्ट रूपमें व्यवहारके
व्यवहारसे
सो यह प्राप्त न
प्राप्त प्रस्तुत
प्रत्युत निमित्त हुई तो
निमित्त हुई' सो ससकी
उसको किया करता है
क्रिया करता है अध्यापन किया करता है तो अध्यापन क्रिया करता है सो किया करता है
क्रिया करता है तःच.९३ पर
१० च० पू०८३ पर बनी
बन संसारवृद्धि
संसारवृतिका प्रतिक्रिया पदमें आये 'सुह' शब्दसे
पदसे बद्ध कर्मोंके संबर
कर्मोंके संवर प्रवृत्तिके रूपमें
प्रवृत्तिके रूपमें व्यवहारधर्म अदया
अदयारूप उसे
xxx सर्वापरति
सर्वविरति
तो यह
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२३
२३२ २३२
१.
२३३
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२३५ २३७ २४४
प्रक्रिया
२४४ २४४ २६६ २६६ २७४
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