Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 496
________________ शंका-समाधान ४ की समीक्षा तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु जीवको अपने अस्तित्व, स्वरूप और पतन तथा उत्थान आदिको समझाने की आवश्यकता है तथा पतनके करण क्या है और उत्थानके कारण क्या है, इसको भी समझना आवश्यक है । इनमेसे अपने अस्तित्व, स्वरूप, पतन और उ स्थान आदिको समझना तो निश्चयमय है और पतनके कारण क्या है और उत्थानके कारण क्या है, इस बातको समझना व्यवहारनय है । अब यदि निश्चयनयको उपेक्षा की गई तो तत्व नष्ट हो जानेसे धर्मतीर्थका आधार ही समाप्त हो जायेगा और यदि व्यवहारनयकी उपेक्षा की गई तो जीवके उत्थानमें कारणभत उपर्यत व्यवहार और निश्चय पर्मतीर्थ (मोक्षमार्ग) की समाप्ति हो जायेगी। इसलिये निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंको समझने और ग्रहण करनेकी आवश्यकता है। __आचार्य अमृतचन्द्रनं पुरुषार्थसिक्युपाय प ४ में कहा है कि वे महापुरुष ही धर्म का प्रवर्तन करने में सक्षम होते है जिन्हें निश्चयनयको मख्यरूपता और व्यवहारनयकी उपचरितरूपताका यथार्थ ज्ञान हो तथा वहीं पर पद्य ८ में आचार्य महोदयने कहा है कि जिस व्यक्तिमे निश्चयनय और श्यवहारनय दोनोंको ठीक तरहसे जानकर दोनोंमें माध्यस्थ्यभाव अर्थात् दोनोंके समान महत्त्वको समझा है वही देशना (उपदेश के सम्पूर्ण फलको प्राप्त करता है । मोक्षमार्गमें व्यवहारधर्मका महत्व __ आघार्य अमृत चन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धथुपायमें ही पद्य ३९ से पद्म ४८ तक व्यवहार अहिंसाका विवेचन करते हुए पद्य ४९ में यद्यपि यह बतलाया है कि जीवकी परवस्तुके कारण अणुमात्र भी हिंसा नहीं होती तथापि परिणामविशुद्धिके लिए हिंसाके आयतनोंका त्याग करना उचित है। इसके आगे पद्य ५० में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जिसने निश्चयको समझा नहीं और यह मान लिया कि जीवको परवस्तुके कारण अणुमात्र भी हिंसा नहीं होती वह जीब मूर्ख है, क्योंकि बह बाह्म क्रियाओंमें प्रमादी होकर बाह्य आचरणको नष्ट करता है। इससे यह बात अच्छी तरह निर्णीत हो जाती है कि निश्चयधर्मकी प्राप्तिमें व्यवहारधर्मका अनपेक्षा गीय महत्व है 1 इति 1

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