Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 495
________________ जयपुर (खनिया) तत्त्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा एवं स्वाचितमार्ग आदि नामोंसे पुकारा जाता है और संसारके मार्गके त्यागको व्यवहारमोक्षमार्ग, अयभार्थमोक्षमार्ग, उपचरित मोक्षमार्ग, असत्यार्थमोक्षमार्ग एवं पराश्रितमोक्षमार्ग आदि नामोंसे कहा आता है। यहाँ यह बात समझनेको है कि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षके मार्गपर आरूढ़ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह स्वभाविक बात है कि जिस मार्गपर जीव चल रहा है उस मार्गसे वह जीव जब तक विमुख नहीं होगा तब तक वह उससे विपरीत मार्गके उन्मुख नहीं हो सकता है। जैसे जिस जीवका लक्ष्य पश्चिमकी और है और वह यदि पश्चिमकी ओर चल रहा है तो यह विचारणीय बात नहीं है, परन्तु जिसका लक्ष्य पूर्वकी ओर है और वह पश्चिमकी ओर चल रहा है तो उसे अपने लक्ष्य की प्राप्तिके लिए सर्वप्रथम पशिचमकी ओर होनेवाले गमनका त्याग करना होगा, क्योंकि जब तक वह पश्चिमकी ओर गमन करना नहीं होगा तब तक वह पूर्वको और गमन नहीं कर सकता है। इसी तरह जिस जीवका लक्ष्य संसार है वह यदि संसारके मार्गपर चल रहा है तो यह विचारणीय बात नहीं है, परन्तु जिसका लक्ष्य पीक्ष बन गया है अर्थात् जो मुमुक्षु बन गया है उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करनेके लिए सर्वप्रथम संसारके मार्गका त्याग करना अनिवार्य है क्योंकि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षके मार्गको ग्रहण करना संभव नहीं है। इससे यह बात निर्णीत होती है कि ओवको मोक्षकी प्राप्ति यद्यपि निश्चयमोक्षमार्गपर आम होनेपर ही होती है, परन्तु यह निश्चयमोजमार्गपर तमी आरूढ़ हो राकता है जब वह संसारमार्गका त्याग करेगा । जैन शासनमें निश्चयमोक्षमार्गको जो निश्चयमोनमार्ग कहा गया है वह इसलिये कहा गरा है कि उसपर आरुड़ होनेपर ही मोक्षको प्राप्ति होती है परन्तु उस निश्चयमोक्षमार्गपर आरूतु हानेके लिए संसारमार्गका त्याग आवश्यक है उसे ही व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं, क्योंकि संसारके मार्गका त्याग किये बिना मोक्षको प्राप्तिमें साक्षात् कारणभूत निश्चमोक्षमार्गकी प्राप्ति संभव नहीं है। अतः व्यवहारसे या उपचारसे संसारके मार्गके त्यागको भी मोक्षमार्ग कहा गया है। उत्तरपक्ष यदि आगमको इस दृष्टिको समझनेकी चेष्टा करता तो उसे पूर्वपक्षकी "व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है" इस मान्यतामें विवादका अवसर ही नहीं आता। इस प्रकार अध्यात्ममें भी निश्वयमोक्षमार्गका ज्ञान करना व प्रतिपादन करना निश्चयनय है और व्यकहारमोक्षमार्गका शान करना व प्रतिपादन करमा व्यवहारमय है। इस विवेचनसे यह बात भी निर्णीत हो जाती है कि न तो व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग या मोक्ष की प्राप्तिमें अकिचितकर है और न व्यवहार नय कथनमात्र है। आगम द्वारा व्यवहारनयकी उपयोगिताकी पुष्टि समयसार गाथा १२ को आत्मख्याति टीकामें जैनागमवी एक गाथाका उस्लेख करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने व्यवहारनयको भी उतना हो महत्व दिया है जितना निश्चयनमको । वह गाथा निम्न प्रकार है जइ जिणमर्थ पवजह ता मा ववहार-पिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च । अर्थ-यदि जिनमतका प्रवर्तन इष्ट है तो निश्चय और व्यवहार दोनों नयों से किसीका भी परित्याग न करो, क्योंकि व्यवहारनयका त्याग कर देनेसे तीर्थ (मोक्षमार्ग) की प्रवृत्ति समाप्त हो जायेगी और निश्चयनयका त्याग कर देनेसे आत्मतत्व ही नष्ट हो जायेगा।

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