Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 497
________________ ५० ८ १२ १३ २१ ३० ३२ ३५ * * * * * * * २२ २९ २७ ११ २४ ४१ ४२ ४२. ५० ५२ ६३ ७३ ७३ ८० ८८ ९३ ९५ पंक्ति २ १८ ९९ १०९ ११२ ११३ ११७ २५ २८ १ २४ ८ १२ २० १२ २४ १३ २ ५ ६ ३२ २५ ३ ४ १८ १० ३४ २९ ૨૮ ३४ २० १२२ १२३ १३१ ३० १३२ १४ १३५ २६ १३६ १३८ १३९ १५५ ३ २२ २२ २३ जयपुर (खानिया) चर्चाका शुद्धिपत्र शुद्धि एवं साक्षात् साधकत्वात् अशुद्धि एव साधकत्वात् ११५ कम्मा हुति स्नेह न उपादान सहकारी रूपमें कार्मण वर्गगाएँ प्रतीत नहीं करता है होने वाले [ था ] अपनी ज्ञेय रागवृद्धि बनेको परस्प गरे के करण है जीवके पचका होती है वह भी भव्वजोषाणं || २ || होइ देउ सामान्येन गुणस्थान में शुभ और अशुभ तब अवश्य ही होते हैं लिंगाणि । १७५ ।। कञ्चिदु प्रतपनं अतः (पृष्ठ ३५) गाथाओं में जाता है होनेसे चिद्यन स्वभाव ११६ कम्मा हुति स्नेहन उपादान के सहकारी रूपमें कार्माण वर्गणाएँ नहीं प्रतीत करता रहता है होने वाला X X X हमारी ज्ञेय है रागबुद्धि आगेको परभावं परस्प दूसरे जीवके उसके पगका होती ही है। वह सभी भक्व जीवाणं ||२५| होइ हे स सामान्येन गुणस्थानोंमें शुभ और शुद्ध तब पहलेके दूसरेका कहता है अवश्य ही प्राप्त होते हैं लिंगाणि ॥८५॥ कश्चिदु प्रतपनं विजयनं यतः • X X X गाथाओं में मी जानता है, देखता है X X X चिद्घन स्वभाव

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