Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
कार बतलाया जा चुका है कि जीव श्रुतज्ञानके द्वारा पदार्थका विश्लेषण करके दूसरे जीवोंको पदार्थका ज्ञान कराता है। इसलिए अब यहाँ यह बतलाया जाता है कि एक जीव दूसरे जीवको पदार्थका ज्ञान वचनों द्वारा ही करा सकता है। यतः पदार्थ भी सखण्ड होता है और वचन भी सखण्ड होता है अतः वचनमें भी नयच्चवस्था बन जाती है।
सर्वप्रथम वचनकी सखण्डता इस प्रकार सिद्ध होती है कि अक्षररो लेकर महा महावाक्य तक वचनके अनेक भेद हैं । उनसे अक्षरोंका समूह शब्द कहलाता है, यथायोग्य शब्दोंका समूह पद कहलाता है, पदोंका समूह वाक्य कहलाता है, वाक्योंका समूह महावाक्य कहलाता है और महावाक्योंका समूह महामहावाक्य कहलाता है। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार महामहावाक्योंके समूह रूप भी बचन हुआ करते हैं। जैसे तत्वार्थसूत्र मोक्षमार्गका प्रतिपादक ग्रन्थ है। उसके दस अध्याय है तथा एक पाक अध्याय मोक्षमार्गके एकएक अंशका प्रतिपादन करता है इस तरह सम्पूर्ण तत्वार्थसूत्र मोक्षमार्गके सभी अंगोंका सामूहिक प्रतिपादन करता है, अतः सम्पूर्ण तत्वार्थसूष मोक्षमार्गका प्रतिपादक होनेसे प्रमाण-वचन है और एक-एक अध्याय एकएक अंशका प्रतिपादक होनेसे नयवचन हैं ।
इसी प्रकार नवाने अनेक अंश पाप आते है । जैसे कि पदगलमें रूप. रस, गंध और स्पर्श चार गण पाये जाते है । इनमें रूपके पाँच, रसके पांच, गंधके दो ओर स्पर्शके आठ भेद होते है। इस तरह पुद्गलके इन सभी गुणोंका सामूहिक प्रतिपादन करना प्रमाणवचन है और उसके एक-एक गुणका प्रतिपादन करमा नयवचन हैं।
इसके अतिरिक्त पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्म भी पाये जाते है । जैसे पदार्थ नित्य भी है और नित्य भी है। इस तरह पदार्थको नित्यानित्यात्मक कहना प्रमाणवचन है व नित्यता और अनित्यताका उसके अंशके रूपमें प्रतिपादन करना नमवचन है।
ये प्रमाणवचन और नयवचन दोनों ही सम्यक है। परन्तु पदार्थको अनित्यनिरपेक्ष केवल नित्य कहना या निलनिरपेक्ष केवल अनित्य कहना अप्रमाण या प्रमाणाभासरूप वचन हैं।
इसी तरह जीवके व्यवहारधर्मको जीयका निश्चयधर्म कहना मयाभामवचन है। जैसे माणवक प्रयोजन और निमित्त वेगात् उपस्ति तो है, परन्तु इस आधारपर इसे वास्तविक शेर मान लेना नयाभास है । यह उदाहरण व्यवहारधर्मको निश्चयधर्म कहनेका उदाहरण है। तथा जीवके निश्चयधर्मको व्यवहारधर्म कहना यह भी नयाभासवचन है। जैसे जीवका चैतन्य निश्चयधर्म है। परन्तु उस चैतन्य की पंचभूतोरी उत्पत्ति कहना नयाभासदमन है । यह उदाहरण निश्चयश्रमको व्यवहारधर्म कहनेका उदाहरण है। तत्त्वार्थसूत्रके "प्रमाणनयंरधिगमः' (१-६) सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि-टीकामें जो "सकलादेशः प्रमाणाबीनो विकलादेशो नयाधीनः" यह वचन निर्दिष्ट किया गया है उससे प्रमाण और उसके अंशभूत नयका स्वरूप स्पष्ट समक्ष में आ जाता है तथा नयध्यवस्थाके आधारका भी ज्ञान हो जाता है। नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य है
यतः पदार्थके अनेक धमो तथा परस्पर विरोधी दो धोका सखण्ड शुतज्ञानद्वारा ज्ञान व सखण्ड वचनद्वारा प्रतिपादन होता है, अतः उस श्रुतज्ञानमे एवं उस वचनमें नयव्यवस्थाको मान्य करना अनिवार्य हो जाता है । ऐसी नयव्यवस्थाका व्याख्यान वस्तुविज्ञान, लौकिकजीवन और आध्यात्मिकजीवन इन तीन दृष्टियोंसे पृथकपृथक् निश्चित होता है।