Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 489
________________ ३०२ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा तथा हमसे पूर्व उस व्यवहारकारणरूप परिणति दोनों ही परिणतियाँ निश्चयकारण और सद्भूतव्यवहारकारणसे भिन्न असद्द्भूतव्यवहारकारणरूप अन्य वस्तुओंके प्रेरक अथवा अप्रेरक ( उदासीन) रूपसे सहायक होनेपर ही होती हैं । (६) उत्तरपक्षको छठीं मान्यता यह है कि निश्चयनमके विषयभूत निश्चयकारणरूप पदार्थ के स्वतः नियतक्रमसे होनेवाले परिणमनोंको व्यवस्था में सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारण और असद्भूतव्यवहारलय विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारण कार्यके प्रति अकिंचित्कर हो जाने से ग्राह्म विषय के अभाव में वे सभी व्यवहारनय कथनमात्र सिद्ध होते हैं । यह मान्यता इस आधारपर निरस्त होती है कि उत्तरपक्षका सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत स भूतव्यवहारकारको और असद्भूतव्यवहारनपके विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारणको अकिंचित्कर मान्य करनेके विषय में जो यह दृष्टिकोण है कि "निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारण के परिणमन स्वतः नियतक्रम से ही होते हैं" इसका निराकरण प्रथम प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में किया जा चुका है और पंचम प्रश्नोत्तरकी समीक्षा में भी किया जायेगा। इसके अतिरिक्त पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जैनशासनमें एक तो निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारणकी कार्यरूप परिणति से पूर्व होनेवाली परिणतियोंको ही इस कार्यरूप परिणतिके प्रति सद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत सद्भूतव्यवहारकारणरूप मान्य किया गया है। दूसरे, जैनशासन में यह भी मान्य किया गया है कि निश्चयनयके विषयभूत निश्चयकारणको कार्यरूप परिणति और मोर उसकी इस कार्यरूप परिणतिमें कारणभूत पूर्व में होनेवाली अन्म परिणति में सभी असद्भूतव्यवहारनयके विषयभूत असद्भूतव्यवहारकारणोंके प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपसे सहायक होनेपर हो होती हैं । फलतः सद्भूत और असद्भूत दोनों ही प्रकारके व्यवहारनयोंके ग्राह्य विषयका सद्भाव सिद्ध हो जानेसे उन्हें कथनमात्र कदापि नहीं सिद्ध किया जा सकता है । वात्पर्य यह है कि कार्य के प्रति उपादानकारणभूत वस्तुमें विद्यमान कार्यरूप परिणत होनेकी स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यतारूप नित्य निश्चयकारणता निश्चयनयका विषय निश्चित हो जाने से जिस प्रकार निश्चयनय कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार कार्यके प्रति उस उपादानकारणभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिसे पूर्व होने बाली परिणतियों में पूर्व में जो अनुपचरित, उपवरित और उपचरितोषचरित रूपसे पूर्ववर्तित्व रूप संभूतकारणता बतलाई गई है वह क्रमशः अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो जानेसे वे अनुपचरित उपचरित और उपचरितोपचरित सद्भूतव्यवहारलय भी कथनमात्र नहीं हैं । एवं कार्यके प्रति उपादानकारणभूत वस्तुसे भिन्न वस्तुओं में पूर्व में जो अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोषचरित रूपसे यथायोग्य प्रेरक अथवा अप्रेरक रूपमें सहायक होने रूप असद्भूतव्यवहारकारणता बतलाई गई है वह क्रमश: अनुश्चरित उपचरित और उपचरितोषचरितअसद्भूत व्यवहारनयों का विषय हो जाने से वे अनुपचरित, उपचरित और उपचरितोषचरित असद्भूतव्यवहारमय भी कथनमात्र नहीं है। जैसे चटकार्यके प्रति उपादानकारणभूत मिट्टी में विद्यमान घटकार्यरूप परिणत होने की स्वभावभूत स्वतः सिद्ध योग्यतारूण नित्य निश्चयकारणता निश्चयनयका विषय निश्चित हो जानेसे जिस प्रकार वहाँ निश्चयनय कथनमात्र नहीं है उसी प्रकार उस घटकार्यके प्रति उपादानकारणभूत मिट्टोकी घटकार्यरूप परिणतिके पूर्व होने के कारण कुशूल, कोश और स्वास परिणतियोंमें पूर्व में क्रमशः जो अनुपचरित उपचरित और उपचार - तोपचरित रूप से पूर्ववर्तित्व रूप सद्भूतव्यवहारकारणता बतलाई गई है यह वहाँ क्रमशः अनुपचरित, उप

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